पार्टी आंतरिक कलह में बुरी तरह उलझी हुई है. पार्टी छोड़कर बाहर आने वाले लोग अंदर का जो आंखों देखा हाल सुना रहे हैं, उसे सुनकर लोग दंग हैं.
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यह महज पांच साल पुरानी 26 नवंबर 2012 की बात है, जब देश के धुंधलाते राजनीतिक क्षितिज पर एक चमकीली सी पतली लकीर नजर आई थी. और सारा देश जोश में आकर इसके पीछे हो लिया था, एक अच्छी और साफ-सुथरी राजनीति की आशा को लेकर. एक नौकरशाह से एक्टिविस्ट तथा आज दिल्ली के मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल ने इसी तारीख को आम आदमी पार्टी नामक राजनीतिक दल का गठन करके सक्रिय राजनेता बनने की विधिवत घोषणा की थी.
और देखते ही देखते यह दुनिया की पहली ऐसी पार्टी बन गई, जिसने अपने जन्म के 14 महीने के अंदर सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश की राजधानी के मंत्रालयों पर अपना झंडा फहरा दिया. आप पार्टी का यह उन्नयन आश्चर्यजनक एवं अप्रत्याशित इसलिए नहीं था, क्योंकि इसने राष्ट्र की उन सामूहिक आकांक्षाओं में उम्मीदों का छिड़काव किया था, जो आजादी के बाद से ही उसके अवचेतन में दमित होकर अपनी अभिव्यक्ति के लिए छटपटा रही थीं. इस तरह की कुछ आकांक्षाएं थीं- भ्रष्टाचार से मुक्ति, साफ-सुथरी राजनीति, अभिजात्य संस्कृति का अंत तथा वास्तविक अर्थों में जन की सत्ता की स्थापना.
लेकिन आम आदमी पार्टी अपने गठन के पांच साल पूरे करने के काफी पहले ही जनता के मोह को तार-तार करने वाली भी यही दुनिया की पहली पार्टी बन बैठी. सत्ता में आने के बाद से इसने मानों चुन-चुनकर उन बिन्दुओं के विरुद्ध कदम उठाना शुरू कर दिया, जिनका साथ देने का उसने वायदा किया था. सत्ता में आने वाले दिन ही उसने लाल एवं नीली बत्तियों को हटाने की घोषणा की. इसके मुख्यमंत्री और मंत्री मेट्रो से अपने पद की शपथ लेने गए. केजरीवाल ने सीना तानकर स्वयं के मंत्रिमंडल को त्यागी बताते हुए विधायकों का वेतन आधा करने कावायदा किया, आदि-आदि. लगने लगा, मानो कि आम आदमी पार्टी ने लोकतांत्रिक पद्धति द्वारा साम्यवादी क्रांति का एक अद्भुत फॉर्मूला पेश कर दिया हो.
लोग खुश थे. आश्चर्यचकित थे. अराजनीतिक लोग तक भी मिस्ड कॉल दे-देकर इस पार्टी के सदस्य बन रहे थे. लोगों ने अपनी अच्छी-अच्छी नौकरियों को लात मारकर इस पार्टी को गले से लगाया. देश-विदेश से पार्टी फंड में चंदा आने लगा.
किन्तु बहुत जल्दी ही लोगों को सुनने को मिला कि इसके मंत्रियों ने काम करने की जरूरतों की आड़ में लुटियन्स दिल्ली के बंगलों को अपने-अपने सीनों से लगा लिया है. सभी के लिए नई और महंगी कारों का इंतजाम कर दिया गया है. विधायकों के वेतन में 400 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी गई है. इनके मंत्री और विधायक अनेक मामलों में आरोपी बन रहे हैं. त्यागपत्र मांगने और बिन मांगे देने का सिलसिला चल रहा है. पार्टी आंतरिक कलह में बुरी तरह उलझी हुई है. पार्टी छोड़कर बाहर आने वाले लोग अंदर का जो आंखों देखा हाल सुना रहे हैं, उसे सुनकर लोग दंग हैं. प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव जैसे बुद्धिजीवी इसके लिए अपच हो गए हैं. कुल-मिलाकर यह कि चूंकि इस आम आदमी पार्टी में सिर्फ एक ही आदमी आम है, इसलिए यह उस एक ही आम आदमी की पार्टी है, जिसका नाम है- अरविंद केजरीवाल.
सत्ता किस प्रकार कितनी तेजी से आदर्शों का विनाश कर सकती है, उसका फिलहाल सर्वोत्तम उदाहरण है- आम आदमी पार्टी के मात्र पांच साल का संक्षिप्त इतिहास.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)