आजकल ‘‘राम’’ चर्चा में हैं. राम नाम नहीं, बल्कि राम मंदिर की वजह से. क्या इसे राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ने की कोई जरूरत है? वैसे राम जन्मभूमि विवाद गांधीजी के समय भी जारी था. परन्तु उन्होंने कभी इस विषय पर टिप्पणी की हो ऐसा कोई प्रमाण संभवतः नहीं है. हां, वे बेझिझक रामराज्य की बात करते रहे और स्वराज की अपनी परिकल्पना को रामराज्य से ही परिभाषित भी करते रहे.
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हिंद स्वराज में गांधी प्रश्न पूछते हैं, ‘‘पर मैं तो, अब जो सवाल उठाया है, उसका जवाब सुनने को अधीर हो रहा हूं. मुसलमानों के आने से हमारा एक राष्ट्र रहा या मिटा?’’ हम जानते हैं गांधी जी ने अपनी इस पुस्तक में अनूठा प्रयोग किया है. वे पाठक के रूप में प्रश्न पूछते हैं और स्वयं संपादक के रूप में उनका जवाब भी देते हैं. तो पाठक गांधी के सवाल का जवाब देते हुए संपादक गांधी कहते हैं, ‘‘हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं, उससे एक राष्ट्र मिटने वाला नहीं है. जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं. ऐसा हो, तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा. ऐसे मुल्क में दूसरे लोगों का समावेश करने का गुण होना चाहिए. हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है.’’
भारत आज पुनः एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां राष्ट्र के रूप में उसकी पहचान पर सवालिया निशान लगाने की कोशिश की जा रही है. भारत में हिंदू-मुसलमान दो कौम हो सकती हैं. दो नस्ल भी हो सकती हैं, (हालांकि ऐसा अधिकतम 5 प्रतिशत के बारे में कहा जा सकता है.) लेकिन दो ध्रुव नहीं हो सकते. भारत में एक ही ध्रुव की गुंजाइश है, जो आसमान में अटल है और दिशा निर्धारण करता है. भारत का दिशा निर्धारण भी यहां की सभ्यता में अन्तर्निहित सहिष्णुता ही करती है. गौरतलब है गांधी अपने उत्तर में कहीं भी शासक का जिक्र नहीं करते. वे प्रजा की बात करते हैं और उसके अडिग रहने की बात करते हैं. यह आपसी तालमेल और एकाकार हो जाना ही भारत को भारत बनाता है. हम पाते हैं कि अनादिकाल से हमारे यहां एक स्तर के बाद शासक की भूमिका गौण हो जाती है. यह स्थिति मुगलों के शासनकाल तक थोड़े बहुत उतार-चढ़ाव के साथ चलती चली आई. सत्ता परिवर्तन कभी भी हमारी सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था को बहुत अधिक प्रभावित नहीं कर पाया. इसका प्रमाण है अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक जहां राजनीतिक उथल-पुथल अपने चरम पर रही, वहीं दूसरी ओर विश्व व्यापार में हमारी हिस्सेदारी में बहुत ज्यादा गिरावट नहीं आई और वह पूरे यूरोप के बराबर ही थी.
बदली हुई परिस्थितियों में जहां संकीर्णता का घालमेल सांप्रदायिकता से हुआ, तो देश दो फाड़ में बंटने की स्थिति में आया और अंततः बंट भी गया. गांधी इस सभ्यतामूलक यथार्थ को समझते थे कि भारतीय संस्कृति पूर्ण समावेशी है. उनका कहना था, ‘‘हिंदू-मुस्लिम एकता का मतलब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एकता पैदा करना नहीं है, बल्कि उन सभी के बीच जो, किसी भी धर्म के अनुयायी होते हुए भी, भारत को अपना देश मानते हैं.’’ वे बात को और भी स्पष्ट करते हुए समझाते हैं, ‘‘किसी झगड़े के लिए दो पक्ष जरूरी होते हैं. जब एक पक्ष झगड़ा करे तब दूसरे पक्ष के लिए शांत रहना आवश्यक है. तभी हिंदू-मुस्लिम एकता कायम रह सकती है. दूसरा पक्ष भला रहे तो हम भी भले रहें - यह न मैत्री का धर्म है न युद्ध का. यह तो सौदेबाजी है. दोस्ती में सौदेबाजी की कोई गुंजाइश नहीं होती. दोस्ती तो बहादुर पक्षों के बीच हो सकती है और सौदेबाजी कमजोरों के बीच. हम एक साथ कमजोर भी हैं और मजबूत भी हैं.’’ वे मानते थे कि हिंदू-मुसलमानों के बीच रिश्ता सौदेबाजी का है और धीरे धीरे सौदेबाजी वाला पक्ष घटता जाएगा. अंततः यह संबंध चिरस्थायी मित्रता का होगा. ऐसा हुआ भी है. धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हो जाने के बावजूद सरहद के उस पार से ज्यादा मुसलमानों का भारत में स्वेच्छा से रह जाना बताता है कि दोनों सम्प्रदायों में गाढ़ी मित्रता विकसित हुई है. यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षां से आपसी तनाव नजर आ रहा है, लेकिन वह राजनीतिक सौदेबाजी है और वह हर काल में मौजूद रही है. परिस्थितियों को बदलने में लंबा समय लगता है. यह भी होता है कि कुछ लोग तब भी नहीं बदलते मगर उन्हें साथ रखना ही होता है. हमें भी उन्हें सहना और समझना होता है. यही चुनौती हर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और व्यक्ति के साथ बनी रहती है.
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आजकल ‘‘राम’’ चर्चा में हैं. राम नाम नहीं, बल्कि राम मंदिर की वजह से. क्या इसें राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ने की कोई जरूरत है ? वैसे राम जन्मभूमि विवाद गांधीजी के समय भी जारी था. परन्तु उन्होंने कभी इस विषय पर टिप्पणी की हो ऐसा कोई प्रमाण संभवतः नहीं है. हां, वे बेझिझक रामराज्य की बात करते रहे और स्वराज की अपनी परिकल्पना को रामराज्य से ही परिभाषित भी करते रहे. ऐसा वे हिंदुओं की सभा में नहीं करते थे. वस्तुतः उन्होंने कभी धार्मिकता का सहारा नहीं लिया, बल्कि वे तो हमेशा एक शाश्वत आध्यात्मिकता की बात करते थे. एक अमेरिकी नागरिक स्वतंत्रता समिति के सदस्य जो नियमवादी (मेथोडिस्ट) पुरोहित थे, अपने समय के दो सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्तित्वों, लेनिन व महात्मा गांधी का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए लिखते हैं, 'ये दोनों मध्यवर्ग से आते हैं, दोनों स्वयं को जनसमुदायों से जोड़ते हैं और दोनों की अपने-अपने देशों में जबरदस्त प्रतिष्ठा है. परंतु उनके राजनीतिक कार्यक्रम या कार्यशैली में आमूलचूल अंतर है. लेनिन अत्याचारी को बलप्रयोग से जीतना चाहते हैं और गांधी ‘‘आध्यात्मिक प्रतिरोध’’ के माध्यम से'. परन्तु आज धार्मिकता की आड़ में वामपंथ का विरोध करने वाले भी गांधी के आध्यात्मिक प्रतिरोध से तारतम्य नहीं बैठा पा रहे हैं. वे लगातार बलप्रयोग की धमकी देते रहते हैं. वजह स्पष्ट है कि गांधी जैसे आध्यात्मिक प्रतिरोध के लिए सर्वप्रथम कट्टरता को छोड़ना पड़ता है. आजादी के पहले एक घुमंतु अमेरिकी पत्रकार ने गांधी को ऐसा राष्ट्रभक्त निरूपित किया था जो इतना मानवीय है कि जाति व वर्ग की परंपराओं को तोड़कर अछूतों के साथ भोजन कर सकता है. पत्रकार आगे लिखते हैं, ‘‘हालांकि वे (गांधी) राजनीति में एक दल का समर्थन करते हैं लेकिन गांधी में धार्मिक कट्टरता नहीं है. वे स्वयं को हिंदू कहते हैं, लेकिन उनकी इसकी परिभाषा अत्यंत व्यापक है, और अनेक मामलों में वे मुसलमानों व ईसाइयों के साथ साझा मत रखते हैं. वे किसी भी तरह के नस्लीय पूर्वाग्रह से पूर्णतया मुक्त हैं.’’
यहां दो बातें उभर कर आती हैं, पहली उनका विश्वास ‘‘आध्यात्मिक प्रतिरोध’’ में है और दूसरा वे किसी भी ‘‘नस्लीय पूर्वाग्रह’’ से पूरी तरह से मुक्त हैं. अतएव आज की आवश्यकता महात्मा गांधी को इसी परिप्रेक्ष्य में समझकर आगे बढ़ने की है. परंतु वस्तुस्थिति इसके ठीक विपरीत नजर आ रही है. ऐसा नजर आने की एक वजह यह भी है कि आपसी वैमनस्य जितना वास्तव में नहीं है, उससे कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा रहा है. वजह हम सबको ज्ञात है और उसे समझना और समझाना प्याज के छिलके उतारने जैसा है, जिसमें अंत में सिर्फ कचड़ा ही हाथ आने वाला है. डॉ. बिपिनचन्द्र जो कि मार्क्सवादी विचारक थे, ने गांधी जी के बारे में लिखा, 'यह धारणा थी कि गांधी जी की वैधता और लोकप्रियता धार्मिक प्रतीकों और धार्मिक आदर के भी उत्युक्तिपूर्ण (की वजह से) है.'
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं दक्षिण अफ्रीका में जब गांधी बड़े नेता के रूप में उभरे तब उनकी उम्र मात्र 24 वर्ष थी और ऐसे युवा वकील के लिए धार्मिक आदर का प्रश्न ही नहीं उठता था. इतना ही नहीं उनके अनुयायियों में मुसलमान भी बड़ी संख्या में थे जो उनके ‘‘सत्य’’, ‘‘अहिंसा’’ व ’’सत्याग्रह’’ के शस्त्रों को हिंदू दृष्टि से नहीं देख सकते थे. इसके अलावा भारत में उनके पहले तीनों आंदोलन खेड़ा, चंपारण व अहमदाबाद भी पूर्णतः गैर धार्मिक ही थे. रोलेट एक्ट में भी कोई प्रश्न नहीं था. उनकी वैधता का धार्मिक आधार उन्हें ‘‘महात्मा’’ कह कर पुकारा जाना हो सकता है. उन्हें गुरु, महर्षि अथवा बाबा की संज्ञा नहीं दी गई. धार्मिक बाबा के रूप में कभी भी गांधी जी की पूजा नहीं हुई जो निजी उद्धार या सांसारिक सफलता का मार्ग दिखाता हो. उनकी महान लोकप्रियता और अंततः बलिदान के बावजूद उनका कोई मंदिर नहीं बनाया गया. न ही उनके नाम के इर्द गिर्द कोई धार्मिक संप्रदाय खड़ा हुआ. गांधी जी के गैर राजनीतिक व्यक्तित्व का चमत्कार धार्मिक भावना में नहीं अपितु उनकी नैतिक भावना में था.
भारत की धर्मनिरपेक्ष संस्कृति जो कि आध्यात्मिकता से फली-फूली है, को आज धर्मांधता से संचालित करने का प्रयास किया जा रहा है. हमें समझना होगा कि गांधी का चश्मा एक बाहरी आवरण मात्र है. वास्तव में उन्हें उनकी अंतर्मुखी आंखो से समझना होगा. वे नियमपूर्वक सुबह व शाम ईश्वर की आराधना करते रहे, लेकिन उनके आश्रमों में मंदिर अनुपस्थित रहा. और ऐसा तब हुआ जबकि वे हरिजनों के मंदिर प्रवेश को लेकर लगातार संघर्षरत रहे. अतएव मंदिर की आवश्यकता एक सनातनी हिंदू के लिए कमावेश गैरजरूरी सी जान पड़ती है. उनके अनन्य सहयोगी व पहले सत्याग्रही विनोबा कहते हैं, 'वेकेंट माइंड (शून्य मन) मन का आराम है. निद्रा मन का विराम है. हमें मन का आराम करना है.’ गांधी ने राम को मन में उतार लिया था. वे राम नाम में सभी समस्याओं और व्याधियों का समाधान देखते थे.
सामान्य भाषा में कहें तो उन्होंने अपने मन को मंदिर में बदल लिया था. आज पुनः उसी आध्यात्मिक प्रतिरोध की आवश्यकता है जिससे वर्तमान वैमनस्य को सौहार्द्र में बदला जा सके. गांधी यह कार्य महज 70 बरस पहले करके भी बता गए हैं. यह आज भी संभव है. कैसे? गांधी समझाते हैं, ‘‘वक्त की जरूरत यह नहीं है कि धर्म एक हो, बल्कि अलग-अलग धर्मवालों के बीच सद्भाव व सहिष्णुता हो. हम मृत्यु के स्तर पर आकर नहीं एक होना चाहते, बल्कि भिन्नता में एकता चाहते हैं.’’
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)