जो बच्चे हमारे नहीं हैं
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जो बच्चे हमारे नहीं हैं

बच्चों पर केंद्रित तमाम अध्ययन उनकी शिक्षा, उनके विकास, उनके स्वास्थ्य आदि को लेकर बेहद चिंतित नजर आते हैं. उन्हें सदाशय और देशभक्त बनाने पर भी खूब शोर मचाते हैं. 

जो बच्चे हमारे नहीं हैं

‘‘एक अधेड़ उम्र औरत ने अपनी तीनों बेटियों सहित 
कीटनाशक खा लिया’’
नहीं तो क्या अमर फल खाती 
कीड़े - मकौड़े से बदतर जिंदगी 
और विस्थापित करने नाचने वाले 
भेडियों के बीच ....
                        
- चन्द्रकांत देवताले

जब भी ऐसी कोई खबर पढ़ने में आती है कि, मां ने बच्चों के साथ आत्महत्या कर ली तो अंदर गुस्सा पनपता था कि, अपने को जो करना था करती, बच्चों को क्यों मारा ? हम सबको स्वयं पर, अपने आस पड़ोस पर, समुदाय पर, सरकार पर बड़ा भरोसा रहता है कि कहीं न कही, कुछ न कुछ तो हो ही जाता ? आत्महत्या और हत्या दोनों ही, कानूनी और नैतिक तौर पर अक्षम्य हैं. परंतु मुजफ्फरपुर में बालिका एवं बालक संरक्षण गृहों में जिस तरह का व्यभिचार, अत्याचार, पापाचार, बलात्कार का साम्राज्य सामने आया तो एक क्षण को लगा कि जैसे उस मां ने ठीक ही किया.

बच्चियों को यातना की निरंतरता से तो बचा ही लिया. उन तीनों लड़कियों को मुजफ्फरपुर संरक्षण गृह की 50 से ज्यादा लड़कियों की तरह स्वयं को यातना से बचाने के लिए स्वयं को रोज कांच घोपकर घायल तो नहीं करना पड़ा. जो कुछ होना था एक बार में ही हो गया. शायद यह हमारी निराशा का चरम है, परंतु यही आज का सच भी है. भारतीय शासन व्यवस्था एक ऐसे नासूर का पोषण कर रही है जिसे कभी भरने ही नहीं दिया जाएगा. भारत के मध्यमवर्गीय या आयकरदाताओं को अपने इस घमंड से उबरना चाहिए कि यह देश केवल उनकी ही कर अदायगी के भरोसे चल रहा है.

आज भीख मांगने वाला भी सरकारी खजाने के अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से योगदान करता है. और गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को सरकारी सहायता में उसका भी योगदान है. बच्चों के साथ यहां जो हुआ है और हो रहा है, पशुता उसके लिए काफी ‘‘कोमल’’ अभिव्यक्ति है. गौर करिए कि यह अत्याचार यहीं तक सीमित नहीं है. उधर तेलंगाना से खबर आई कि कई छोटी बच्चियों को एक से तीन लाख रु. में खरीदा. नकली मां बन उनका पाठशाला में प्रवेश भी करा दिया, जिससे कि कोई शक न हो. डाक्टरों ने 20 से 25000 रु. तक लिए और दस-बारह बरस की बच्चियों को हारमोन के टीके लगाकर उन्हें समय से पहले जवान कर, देह बाजार के लिए तैयार कर दिया. जैसे कि गोया लौकी और लड़की में कोई फर्क ही नहीं है. आपको याद होगा कि कुछ समय पहले बाजार में खूब बड़ी-बड़ी लौकियां आने लगीं थीं, जिन्हें इंजेक्शन लगाकर रातो-रात बड़ा कर दिया जाता है.

कुछ बरस पहले मध्यप्रदेश के मंदसौर/नीमच जिलों में देह व्यापार में लिप्त बांछड़ा समुदाय की लड़कियों एवं अपहरण की गई लड़कियों पर भी हारमोन्स का प्रयोग किया गया था. इसके परिणाम स्वरूप 22-24 वर्ष की उम्र पर उनके सारे शरीर पर (चेहरे सहित) बाल उग गये थे और वे लगातार बीमार रहने लगीं थीं. यहां भी डाक्टर इस कार्य में शामिल थे. और चिकित्सा विज्ञान या मेडिकल की पढ़ाई पर भी हमारा आपका ही धन लगता है. तो सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि हम समाज के कुछ बच्चों के प्रति इतने अधिक क्रूर और बेहद अमानवीय हो गये हैं. 

गौरतलब है, ये कौन से बच्चें हैं जो हमारे नहीं हैं ? और ये हमारे क्यों नहीं हैं ? बच्चों पर केंद्रित तमाम अध्ययन उनकी शिक्षा, उनके विकास, उनके स्वास्थ्य आदि को लेकर बेहद चिंतित नजर आते हैं. उन्हें सदाशय और देशभक्त बनाने पर भी खूब शोर मचाते हैं. पांच सितारा विद्यालयों के एयरकंडीशंड डाइनिंग हाल से लेकर गटर किनारे बनी आंगवाड़ियों और विद्यालयों के मध्यान्ह भोजन की चिन्ता भी हमें लगी रहती है, भले ही वह कितनी ही दिखावटी क्यों न हो ! पर ये बच्चे जो संरक्षण गृह या अनाथालय में रह रहे हैं उनके बारे में कोई बातचीत नहीं हो रही. वे समाज की नजर ही नहीं उनकी सोच से ही नदारद हैं.

ऐसा कैसे संभव है कि भारत के प्रत्येक शहर में ऐसे बाल संरक्षण गृह हैं और उनकी निगरानी की कोई व्यवस्थित व्यवस्था ही नहीं है. क्या यह अंग्रेजी कहावत ‘‘आउट आफ साइट आउट आफ माइंड’’ यानी जो हमारी नजरों के सामने नहीं है वह हमारे ध्याम में भी नहीं है’’ जैसा मामला है ! क्या यही माजरा है ? अगर यह भारतीय संदर्भ में सटीक बैठता तो सड़कों, रेल्वे प्लेटफार्मों, बस स्टेंडों, मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरजों के सामने हाथ फैलाते बच्चे हमें नजर क्यों नहीं आते ? परंतु मुजफ्फरपुर जैसी घटनाएं इसलिए अधिक गंभीर होने के साथ दुखद हैं, क्योंकि ऐसे निराश्रित बच्चों का ध्यान रखने के लिए, भारतीय प्रशासनिक/राजनीतिक तंत्र ने एक सांस्थानिक व्यवस्था या प्रणाली को अपनाया और उसे पोषित करने के लिए आर्थिक मदद भी उपलब्ध करवाई है हम एक संविधान के अंतर्गत, तमाम कानूनों की सहायता से अपने राष्ट्र का संचालन करते हैं.

इसकी भूमिका ‘‘हम, भारत के लोग’’ को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय और प्रतिष्ठता और अवसर की समानता के साथ ही साथ व्यक्ति की गरिमा की बात समझाती है. तो इन बच्चों को क्या हम अपने से अलग माने ? संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद - 14, धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करता है. वहीं अनुच्छेद 21 प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण करता है. अनुच्छेद 21-अ छः से चैदह वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा अधिकार प्रदान करता है. दूसरी ओर राज्य के नीति - निदेशक तत्व में अनुच्छेद - 39 (ड) के अनुसार ‘‘पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों.’’ अनुच्छेद 39 (च) और भी स्पष्टता के साथ बता रहा है, ‘‘बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाएं और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए.’’

संविधान के इस विस्तृत उद्धहरण के पीछे मन्तव्य यही है कि, हम समझ पाएं कि सरकारी पैसे के दुरुपयोग को सिर्फ भ्रष्टाचार के खाते में डालने से काम नहीं चलेगा. सरकारी धन से चल रहे ऐसे संरक्षण गृहों से सिद्ध हो रहा है कि किस तरह की अनैतिकता व अत्याचार को बढ़ाने में सरकारी मदद काम में लाई जा रही है. बच्चों पर गहन अध्ययन कर रहे सचिन कुमार जैन का कहना है कि तमाम (सभी नहीं) संरक्षण गृहों एवं जेलखानों में कोई अंतर नहीं है. कहीं कोई दरवाजा या रोशनदान नहीं हैं, जिनसे कोई आवाज बाहर आ सके. दोनों ही स्थानों पर जैसे नागरिक अधिकारों पर स्थगन लग जाता है. मुजफ्फरपुर में स्थितियां थोड़ी भिन्न थीें. वैसे जिस भवन में इन लड़कियों को रखा गया था, उसमें भी कोई खिड़की नहीं थी. आस - पडौसियों का कहना है कि उन्हें बच्चियों की चीखे निरन्तर सुनाई देती थी. फिर भी किसी ने कोई कदम नहीं उठाया. सभी के घरों में बच्चे तो होंगे ? लेकिन ये तो वे बच्चे थे, जो हमारे नहीं हैं, इसलिए हमारा कोई दायित्व बनता ही नहीं. साथ ही साथ एक बड़ी समस्या यह भी है कि शायद हम इन बच्चों की निगाह से देख ही नहीं पा रहे हैं, उनकी शारीरिक व मानसिक स्थिति भी नहीं समझ रहे हैं.

इसीलिए हम संभवतः कोई इस समस्या का हल भी सुझा ही नहीं पा रहें हैं. यह भी तथ्य है कि भारत के तकरीबन 80 प्रतिशत संरक्षण गृह निजी हाथों में हैं और वे सरकारी/सार्वजनिक निगरानी तंत्र की पहुंच से बाहर हैं ! हमें टाटा इंस्टिट्यूट आफ सोशल साइंसेस (टिस) मुंबई के शोधकर्मियों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि वे इन विभीषिकाओं को हमारे सामने लाने का दुस्साहस कर पाए. अखबारों में मुजफ्फरपुर संरक्षण गृह के सर्वेसर्वा का पुलिस अभिरक्षा में फोटो छपा है. उसके चेहरे की निर्मम बेशर्मी अभी भी अपनी मुस्कराहट के साथ हमें चिढ़ा रही है. यह प्रथा बन गई है कि आजकल जैसे ही कोई बर्बर अपराध होता है, उसको समाप्त करने के लिए मृत्युदंड का प्रावधान कर दिया जाता है. क्या ब्रजेश राठौर और उसके इस आश्रम में आने वाला वर्ग, जिसमें एक मंत्रीपति की बात भी सामने आ रही है, नहीं जानते थे कि पाक्सो कानून में मौत की सजा का प्रावधान कर दिया गया है.

बलात्कार और हत्या के दुर्लभ मामलों में मृत्युदंड की सजा अब दी जा सकती है. परंतु सब व्यर्थ ! क्यों ? यही क्यों आज का सबसे ज्वलंत मुद्दा है. समाज में कानून व न्याय के प्रति इतनी घोर अवहेलना की हिम्मत कहां से आ रही है. पिछले दिनों दिवंगत हुए लेखक/पत्रकार राजकिशोर, अपनी संपादित पुस्तक श्रंखला ‘आज के प्रश्न‘ की एक पुस्तक, ‘‘बच्चे और हम’’ की शुरुआत में लिखते हैं, ‘‘मेरे एक मित्र का कहना है कि स्त्री दुनिया का आखिरी उपनिवेश है. और बच्चे ? उनके बारे में सोचने की जरुरत किसे है ?’’ पूरे 20 साल हो गए इस पुस्तक को छपे. हम बच्चों को लेकर जितनी भी बातें कर रहे हैं, वह यकीनन महत्वपूर्ण हैं, लेकिन यह उन बच्चों तक सीमित होती गई हैं जो हमारी आँखों के सामने हैं. आज सिर्फ लड़कियां ही नहीं लड़के भी बड़ी संख्या में बलात्कार का शिकार हो रहे हैं और टिस की रिपोर्ट में इसका भी विस्तार से वर्णन है.

बच्चों को लेकर हमें अपनी सोच को लैंगिक तटस्थ (जेंडर न्यूट्रल) बनाना होगा तभी हम शायद किसी हल तक पहुंच पाएं. एक अव्यावहारिक सा नजर आने वाला परंतु परीक्षण किया जाने वाला सुझाव यह है कि ऐसे बाल संरक्षण गृहों में रहने वाले प्रत्येक बच्चे के लिए एक स्थानीय पालक को जिम्मेदारी दी जाए. बाल संरक्षण समितियों पर भी इन्हीं पालकों के समूह द्वारा निगरानी रखी जाए. देवताले जी कविता के अन्त में कहते हैं, ‘‘खट ! खट ! खट ! दरख्त कट रहा है ब्रहमाण्ड में / कांच के चूर - चूर टुकड़ों की तरह / बिखर रहा है मां का कलेजा / अफसोस कहीं भी दर्ज नहीं हो रहीं ये हत्याएं / धन डालर की पूजा, विदेशी आतिशबाजी के / करोड़ों - करोड़ों में धुत्त है मुट्ठीभर लोगों वाला देश. 

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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