कबीर : प्रेम न खेतों नीपजै
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कबीर : प्रेम न खेतों नीपजै

कबीर अपने समय की सत्त को खुली चुनौती देते हैं और गांधी अपने समय की. एक के हाथ में करघा है दूसरे के हाथ में चरखा और दोनों के बीच की 350 बरस की दूरी जैसे अपने आप समाप्त हो जाती है. दोनों ही इस संसार में रहते हुए वीतरागी हैं और कबीर कहते भी हैं.

कबीर : प्रेम न खेतों नीपजै

हद तपे तो औलिया, बेहद तपे फकीर.
हद बेहद दोनूं तपे, बाको नाम कबीर ..

मगहर, जहां कबीर ने शरीर त्यागा आज पुनः चर्चा में है. इस वजह से नहीं कि आज से ठीक 500 वर्ष पूर्व सन् 1518 में कबीर ने वहां अंतिम सांस ली थी, बल्कि इसलिए कि वहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जा रहे हैं. यह माना जा रहा है कि वे वहां से सन् 2019 के आम चुनाव अभियान का बिगुल बजायेंगे. यह वास्तव में बेहद दुखदायी है कि बढ़ती आर्थिक बेचारगी, घटते रोजगार से और व चुराकर हमारा राजनीतिक तंत्र अब स्वयं को सिर्फ चुनावी हार-जीत पर केन्द्रित किए हुए है. नरेन्द्र मोदी को बनारस से मगहर की दूरी पार करने में 4 साल लग गए. वे भौतिक रूप से वहां पहुंच तो रहे है, लेकिन वे अपनी आत्मा को दिल्ली में किसी पिंजरे में रखकर वहां पहुंचे हैं. उनके लिए अगली चुनावी जीत मोक्षस्वरूप् है और कबीर का मगहर आने के पीछे का मन्तव्य मोक्ष की आकांक्षा से मुक्ति पा लेना था. तभी तो उन्होंने कहा था -

क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय श्रम मोरा.
जो कासी तक तजे कबीरा, रामे कौन निहोरा ..

‘वे कहते हैं कि काशी हो या फिर मगहर का बंजर क्षेत्र मेरे लिए तो दोनों एक से हैं, क्योंकि मेरे हृदय में राम बसते हैं. अगर कबीर काशी में शरीर का त्याग करके मुक्ति प्राप्त कर लें, तो इसमें राम का कौन सा अहसान है. मगर क्या यह बात वर्तमान राजनीतिज्ञों को समझाई जा सकती है? आजादी के बाद से धीमे-धीमें और सन् 1992 के बाद से बहुत तेजी से राम मंदिर का मामला तूल पकड़ता गया और हम सबने राम को जैसे हृदय से निकाल अयोध्या में एक टेंट में बैठाल दिया. अब पिछले तीन दशकों से हम उनके लिए एक मकान (मंदिर) बनाना चाहते है, जिसमें हमारे हृदय में राम निवास कर सकें! क्या मगहर इसका माध्यम नहीं बन सकता? एक ऐसा पवित्र स्थान जहां कबीर की समाधि और मकबरा दोनों की मौजूद हैं.

क्या कबीर की 500 वीं पुण्यतिथि पर वहां एक सर्वदलीय आमसभा का आयोजन नहीं होना चाहिए था, जिसमें अन्य विद्वान की शिरकत करते और इस सभा की अध्यक्षता राष्ट्रपति करते. इतना ही नहीं यह सभा गांधी - 150 को समारोहित करने की दमदार पृष्ठभूमि तैयार करती. परन्तु ऐसा विचार अपने आप में ही अछूत हो गया है. आपसी भेदभाव व बटवारा हमारे समय का यथार्थ बन गया है. आज बांटो और राज करो (डिवाइड एण्ड रूल) की अंग्रजों की नीति को क्रियान्वित करने के लिए तमाम रणनीतियां रोज बन रही है. यह विद का विषय हो सकता है कि देष में अघोषित आपातकाल लागू है या नहीं परंतु इस बात से तो इकार नहीं किया जा सकता है कि देश सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर बेहद संकट के दौर से गुजर रहा है.

जब सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति उपरोक्त विषयों पर मौन साध लें और प्रत्येक घटना या परिस्थिति के लिए अतीत को दोषी ठहराने लगें तो समाधान की गुंजाइश भी कम होती जाती है. हमारे सामने यह पुनः स्पष्ट होता जा रहा है कि आज सबसे बड़ा संकट सांप्रदायिकता का है और इसकी वजह से एक खतरनाक ध्रुवीकरण हमारे देश के संकटग्रस्त कर रहा है.

कबीर तो पिछले पांच सालों से भी ज्यादा से हम सबको समझा रहे है -

‘‘कबीर इस संसार को समझाऊं कै बार.
पूंछ जो पकड़े भेद का, उतरा चाहे पार..''

आजादी के बाद दबे-छुपे कांग्रेस ने इस भेदभाव को प्रश्रय दिया और उसका परिणाम उन्होंने भुगत भी लिया. भाजपा ने इसे अपनार ब्रह्मास्त्र बना लिया और केन्द्र व तमाम राज्यों में सत्ता प्राप्त कर ली! परन्तु उनमें वह दृष्टि विकसित नहीं हो पा रही है, जो देश में सामाजिक व राजनीतिक स्थिरता प्रदान कर सके. बल्कि उनकी आर्थिक नीतियां तो अधिक विध्वंसकारी सिद्ध हो रही है. परन्तु आत्ममुग्धता यह समझा पाने में रूकावट बन गई है कि राजनीति महज चुनावी खेल नहीं है. और यदि आप इसे खेल की तरह भी लेना चाहते हैं तो इसके लिए स्वयं में खिलाड़ी जैसी प्रतिस्पर्धात्मक भावना विकसित करना होगी, न कि दुश्मन को नेस्तनाबूत कर देने की प्रबल इच्छा.

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कबीर यहीं हमारी सहायता भी कर सकते हैं. परन्तु हम तो एक ऐसे समय में हैं जबकि कबीर जंयती पर उनकी 500वीं पुण्यतिथि को ज्यादा महत्व दे रहे हैं. वैसे यह तो कहा जा सकता है कि कबीर का जीवन जितना प्रेम से भरा था, उनकी मृत्यु भी दोनों सम्प्रदायों हिन्दू-मुसलमानों को एक साथ लाने का प्रयास थी. तो क्या मगहर की प्रेरणा यानी‘‘ कबीर की समाधि और मकबरा‘‘ को नई यथार्थता प्रदान करते हुए हम ‘‘राम मंदिर व बाबरी मस्जिद’’ को एकसाथ आत्मसात नहीं कर सकते? इसके लिए हम दोनों अर्थात् हिन्दू-मुसलमानों को अपने घर (संकुचित विचारों) को जनाना होगा उनका तो कहना भी था.

‘‘हम घर जारा आपना, लिया मुराड़ा हाथ.
अब घरा जारों तासु का, जो चले. हमारे साथ.."

कबीर साहस का ही दूसरा नाम है. प्रेम का पर्याय भी हैं. कबीर पुरानी परंपराओं को तोड़ते ही नहीं हैं, वे नई परंपराएं भी स्थापित करते हैं. वे एक ऐसे जुलाहें हैं, जो प्रेम और सदभाव के ताने-बाने से एक नया संसार रचते हैं और एक ऐसी झीनी चरदिया बुनते हैं, जिसके आर-पास देखा जा सकता हो. वे कुछ भी छिपाते नहीं हैं. अपना प्रेम और अपना क्रोध दोनों ही. वे आज की राजनीति का आदर्श भी बन सकते हैं. उनकी सोच और उनका आचरण एकदम एक सा है. वे जित करघे को अपना प्रतीक और व्यवसार बनाते हैं, गांधी भी उसी करघे से देश की गुलामी से टकरा जाते हैं. कबीर अपने समय की सत्त को खुली चुनौती देते हैं और गांधी अपने समय की. एक के हाथ में करघा है दूसरे के हाथ में चरखा और दोनों के बीच की 350 बरस की दूरी जैसे अपने आप समाप्त हो जाती है. दोनों ही इस संसार में रहते हुए वीतरागी हैं और कबीर कहते भी हैं.

‘‘हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या,
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या?"

हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर के लिए लिखते हैं - ‘‘ वे सिर से पैर तक मस्तमौला थे. मस्त- जो पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं रखता, वर्तमान कर्तव्यों को सर्वाच नहीं समझता और भविष्य में सबकुछ झाड़-फटकार निकल जाता है. जो दुनियादार किये-कराये का लेखा-जोखा दुरूस्त रखता है, वह मस्त नहीं हो सकता. जो अतीत का चिट्ठा खोले रहता है वह भविष्य का क्रान्तदर्शी नहीं हो सकता.’’ आज तो हम अतीत में ही विचरण कर रहे हैं. हम महाभारत काल से इंरनेट पर ‘‘चेटिंग’’ कर रहे हैं और रामायण काल से ‘‘पुष्पक विमान’’ में उड़ रहे थे. परन्तु उसी इंरनेट से हम यह देखने में घबड़ा जाते हैं कि 80-90 बरस पहले आजादी के आंदोलन में कौन किस तरह की भागीदारी कर रहा था. वीर क्या कर रहे थे और महात्मा किस जेल में थे. कबीर आज होते तो किसी को नहीं बख्शते. तभी तो, वे समझाते भी हैं.

"निंदक नियरे राखिये, आंगनि कुटी बंधाई.
बिन साबुन पानी बिना, निरमल करै सुभाई.."

हमारी वर्तमान राजनीतिक मनोवृत्ति निदंक के लिए जेल की चहार दीवारी तय कर देती है. जो भी असहमत है उसकी आवाज किसी अन्य के कान में नहीं जानी चाहिए गलती से चली भी जाए तो इसका शोर इतना तेज और तीखा हो जाता है कि वह आवाज सुनाई नहीं देती. वैसे यह भी कहा जाता है कि हमारा बोला इस सृष्टि में कहीं-न-कहीं सुरक्षित रह जाता है. हो सकता है एक समय बाद वह सच सामने आए और तब परिस्थितियां बदलें. कबीर भी अपने समय में रहते हुए कालातीत थे.

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उनकी जन्मतिथि पर एक बार पुनः उनकी पुण्यतिथि को स्मरण करते हैं. माघ मास की एकादशी संवंत 15/9 को कबीर ने देह त्यागी. उनके अंतिम संस्कार को लेकर राजा वीर देव सिंह बघेल और नवाब बिजली खां में बहस हो गई. तलवार निकलने की नौबत आ गई. नवाब का कहना था कबीर मुसलमान थे, और उन्होंने मेरे इलाके में आकर शरीर त्यागा है, इसलिए शव पर मेरा अधिकार है. राजा बघेल का तर्क था. साहब को मानने वाले हिन्दू ज्यादा थे. वे स्वंय रामानंद के शिष्य थे. इसलिए दाह संस्कार का अधिकार मेरा है. वैसे ऐसी तमान-परिस्थतियां आज भी मौजूद हैं. कहते हैं तब अजूबा हुआ. कबीर साहब का पार्थिव शरीर गायब हो गया. वहां कुछ फूल पड़े थे खुशबू फैला रहे थे. तकरार खत्म हो गई. दोनों ने उन फूलों को बांट लिया और अपनी-अपनी धार्मिक रीतियों से उन फूलों का अंतिम संस्कार कर दिया. उन फूलों की महक आज भी बदस्तूर है, जो कह रही है -

प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय.
राजा परजा जिसे रूचे, सिर दे सो ले जाय..

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