#Gandhi150: गांधी जी को संसदीय लोकतंत्र तो चाहिए था, लेकिन सत्य और अहिंसा की कीमत पर नहीं
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#Gandhi150: गांधी जी को संसदीय लोकतंत्र तो चाहिए था, लेकिन सत्य और अहिंसा की कीमत पर नहीं

 संसदीय लोकतंत्र की शुद्धि के लिए गांधी जी का शस्त्र अप्रतिम एवं बेहद मारक है. वे आजादी पूर्व जिस तरह से तंत्र से निपटने का रास्ता बता रहे थे, वह आज भी उनका ही सार्थक है.

#Gandhi150: गांधी जी को संसदीय लोकतंत्र तो चाहिए था, लेकिन सत्य और अहिंसा की कीमत पर नहीं

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही देश भर में अगले वर्ष मई में होने वाले आम चुनावों की तैयारी और रणनीति बनने-बिगड़ने का दौर प्रारंभ हो गया है. इसी के समानांतर गांधीजी के जन्म के 150वें वर्ष में प्रवेश को लेकर भी व्यापक गतिविधियां प्रारंभ हो गई हैं. गांधी जी ने पंचायत से लेकर संसद तक की कार्यप्रणाली और उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता को लेकर लगातार मार्गदर्शन किया है. वे भारतीय संविधान की अपनी संकल्पना प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, ‘‘मैं ऐसे संविधान की रचना के लिए प्रयत्न करूंगा, जो भारत को हर तरह की गुलामी से और किसी का आश्रित होने की भावना से मुक्त कर देगा और यदि जरूरत पड़े तो उसे पाप करने का अधिकार भी देगा. मैं ऐसे भारत के लिए कार्य करूंगा, जिसमें गरीब से गरीब आदमियों को लगे कि भारत उनका देश है - जिनके निर्माण में उनका भी महत्वपूर्ण हाथ है.’’

यह तय है कि भारत के संविधान निर्माताओं ने गांधीजी के विचारों को संविधान के अन्तर्गत काफी हद तक समावेशित किया, लेकिन उसके क्रियान्वयन के लिए जिस प्रकार की सांस्थानिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक स्पष्टता और साहस की आवश्कता थी, वह आजाद भारत में आज तक व्यवस्थित रूप से विकसित नहीं हो पाई. वास्तविकता यह भी है कि आजादी के बाद के करीब 25 वर्षां तक संवैधानिक संस्थानों को मजबूत बनाने की प्रक्रियाओं को सन् 1975 में आपातकाल की घोषणा ने जबरदस्त चोट पहुंचाई. इस दौरान सन् 1962 के चीन युद्ध के दौरान ज्यादा प्रयोग में आए मीसा (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) को आंतरिक गड़बड़ियों के लिए भी प्रयोग में लाया गया. सन् 1977 में जनता पार्टी के शासन के दौरान लोकतंत्र बहाली को लेकर एक बार पुनः विश्वास उत्पन्न किया गया. परंतु सन् 1980 में श्रीमती गांधी व कांग्रेस की वापसी के बाद बिल्कुल नए तरीके से लोकतंत्र को सीमित करने की तरकीब विकसित कर ली गई.

नागरिकों के मौलिक अधिकारों का स्थगन हुआ. जनता पार्टी शासन ने इसे लेकर मजबूत व स्पष्ट कदम उठाए. परंतु सन् 1980 के बाद विद्यमान कानून जैसे गैर कानूनी गतिविधियां प्रतिबन्ध कानून को अधिक संकुचित व दमनकारी बनाया गया. सन् 1980 में ही राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) लागू हुआ. इसके बाद टाडा व पोटा आए. तमाम राज्यों ने अपने-अपने सुरक्षा अधिनियम बनाकर अंततः व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लगातार सीमित करने का प्रयास किया और पिछले 4-5 वर्ष एक बार पुनः आपातकाल की याद दिला रहे हैं.

गांधी का स्वराज्य से अभिप्राय था लोक सम्मति के आधार पर भारत वर्ष का शासन. वे स्पष्ट करते हैं, ‘‘लोक सम्मति का निश्चय देश के बालिग लोगों की बड़ी से बड़ी संख्या के मत के द्वारा होगा, फिर वे स्त्रियां हों या पुरुष, इसी देश के हों या इस देश में आकर बस गए हों. वे ऐसे लोग होने चाहिए, जिन्होंने अपने शारीरिक श्रम के द्वारा राज्य की कुछ सेवा की हो और मतदाता सूचियों में अपना नाम लिखवा लिया हो.’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘फिलहाल मेरे स्वराज्य का अर्थ होगा, भारत की आधुनिक व्याख्या वाली संसदीय शासन व्यवस्था.’’

उनका यह भी मानना था कि संसदीय शासन व्यवस्था के अभाव में हम कहीं के भी नहीं रहेंगे. परंतु आज की शासन व्यवस्था लगातार लोगों को लोकतंत्र के दायरे से बाहर कर रही है. गांधी के भारत में बाहरी लोगों का भी स्वीकार्य है. वहीं वर्तमान शासन व्यवस्था लगातार व्यक्तियों को बहिष्कृत करने पर जोर दे रही है और इसे एक प्रमुख चुनावी मुद्दे के रूप में प्रस्तुत भी कर रही है. संसद व राज्य विधानसभाओं के सत्रों के दिवस लगातार घट रहे हैं और आम जनता को अपने अधिकारों के लिए अधिकाधिक न्यायालयों की ओर रुख करना पड़ रहा है. ऐसे में चुनी हुई संसद की भूमिका पर प्रश्न लग रहा है.

गांधी जी का भविष्य की भारतीय संसद को लेकर मानना था कि, ‘‘तब हमारी संसद क्या करेगी? जब हमारी संसद हो जाएगी तब हमें महान भूले करने और उन्हें सुधारने का अधिकार होगा. प्रारंभिक अवस्था में बड़ी-बड़ी भूलें हमसे होंगी ही.’’ वे यह भी जोड़ते हैं, ‘‘स्वराज्य की एक परिभाषा है, भूल करने की स्वतंत्रता और की गई भूलों को सुधारने का कर्तव्य. और ऐसा स्वराज्य पार्लियामेंट (संसद) में ही निहित है. उसी पार्लियामेण्ट की आज हमें जरूरत है. आज हम उसके योग्य हैं.’’ वहीं हम आज देख रहे हैं कि संसद अपने पूर्व के कार्यां में संशोधन को तैयार नहीं है. टाडा व पोटा के भयानक दुरुपयोग और उसे रद्द कर देने के बावजूद धारा 377 को हटाने, सबरीमाला मंदिर पर चुप्पी और आधार कानून को धन कानून के रूप में पारित करना समझा रहा है कि अभी हममें उतनी परिपक्वता नहीं आई है जितनी की एक संसदीय लोकतंत्र में होना चाहिए. हम अपनी ‘‘महान’’ भूलों को स्वीकारने और उन्हें ठीक कर पाने के लिए मानसिक रूप से स्वयं को तैयार नहीं कर पा रहे हैं.

वे जहां एक ओर तत्कालीन धारासभाओं (विधान सभाओं) की तरफदारी करते हुए कहते हैं, ‘‘यदि धारासभाओं के चुनाव की लड़ाई का अर्थ, सत्य और अहिंसा की कुरबानी हो, तो प्रजातंत्र को कोई एक क्षण के लिए भी नहीं चाहेगा. जनता की वाणी परमेश्वर की वाणी है, और उन 30 करोड़ मनुष्यों की वाणी है, जिनका हमें प्रतिनिधित्व करना है. क्या सत्य और अहिंसा के द्वारा ऐसा कर पाना संभव नहीं?’’ उनके इस कथन में दो महत्वपूर्ण तथ्य समाहित हैं. पहला यह कि सत्य और अहिंसा के बिना प्रजातंत्र स्वीकार्य नहीं है. जबकि आज का हमारा समूचा लोकतंत्र असत्य और हिंसा के इर्द-गिर्द मंडरा रहा है. हर कदम पर राजनीतिज्ञ व बाबू लोग झूठ बोल रहे हैं और हिंसा की चौतरफा आमद हो रही है.

मॉब लिंचिंग के शिकार अब इक्का-दुक्का व्यक्ति नहीं, बल्कि भारत की एक तिहाई आबादी जो कि उत्तर प्रदेश (22.50 करोड़), बिहार (10.40 करोड़) और मध्य प्रदेश (7.27 करोड़) के प्रतिनिधि हो रहे हैं, जो कि अपने रोजगार के लिए गुजरात में रह रहे हैं. गुजरात की छूत अब महाराष्ट्र में भी पहुंच रही है. इतना असत्य बोला जा रहा है कि उसमें से सत्य को ढूंढ पाना कमोबेश असंभव होता जा रहा है. भारत शायद एकमात्र ऐसा देश होगा जहां चुनाव आयोग आचार संहिता लागू तो कर सकता है, परंतु उसकी अवहेलना करने पर संबंधित पक्ष को दंडित करने का अधिकार उसके पास नहीं है. स्वयं को ही कटघरे में खड़े करते हुए चुनाव आयोग के वर्तमान स्वरूप व कार्यविधि के दृष्टिगत लगता है कि शायद यह अधिकार न होना एक स्तर पर ठीक ही है.

परंतु गांधी जी इन विधान (धारा) सभाओं को भी अंतिम नहीं मानते. वे लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रणाली के संबंध में समझाते हैं, ‘‘हम एक अरसे से इस बात को मानने के आदि बन गए हैं कि आम जनता को सत्ता सिर्फ धारासभाओं के जरिए मिलती है. इस ख्याल को मैं अपने लोगों की एक गंभीर भूल मानता हूं.‘‘ वे अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘‘अंग्रेज जाति के इतिहास के छिछले या ऊपर-ऊपर के अध्ययन से हमने समझ लिया है कि सत्ता शासनतंत्र की सबसे बड़ी संख्या पार्लियामेंट से छनकर जनता के बीच पहुंचती है. सच बात यह है कि सत्ता जनता के बीच रहती है, जनता की होती है.’’ जाहिर है जनता अपना प्रतिनिधि बनाकर ही तो विधानसभाओं और संसद में भेजती है. इसी वजह से जनता से भिन्न या अलग होकर इन संस्थानों की सत्ता तो कोई हस्ती ही नहीं होती.

वर्तमान परिस्थितियों में इन चुनी हुई एवं अन्य संवैधानिक संस्थाओं की जहां दुर्गति हो रही है, वहीं दूसरी ओर यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह सब हम सबकी लापरवाही और राजनीतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने के प्रति अनिच्छा का परिणाम ही है. संसदीय लोकतंत्र की शुद्धि के लिए गांधी जी का शस्त्र अप्रतिम एवं बेहद मारक है. वे आजादी पूर्व जिस तरह से तंत्र से निपटने का रास्ता बता रहे थे, वह आज भी उनका ही सार्थक है. उनके अनुसार, ‘‘सत्ता का असली भंडार तो सत्याग्रह की या सविनय कानून भंग करने की शक्ति में है. एक समूचा राष्ट्र (इसे हम प्रदेश भी पढ़ सकते हैं: लेखक) यदि अपनी धारासभा के कानूनों के अनुसार चलने से इनकार कर दे और इस सिविल नाफरमानी के नतीजों को बर्दाश्त करने को तैयार हो जाए तो सोचिए क्या नतीजा होगा ?’’ वे मानते थे कि जनता सरकार व धारासभाओं और शासन प्रबन्धन को स्थिर कर देगी- रोक देगी. उनका मानना था सरकार, पुलिस और फौज की जबरदस्त ताकत, थोड़े से लोगों को दबाने में ही कारगर सिद्ध हो सकती है.

ध्यान रखने योग्य बात यह है कि यह सारा कार्य सविनय ही होना चाहिए, खासकर वर्तमान परिस्थितियों में यह और भी जरुरी हो जाता है. जबकि सरकार हमने अपने ही मतों से चुनी हो. वे कहते हैं, ‘‘जब कोई समूचा राष्ट्र सब कुछ सहने को तैयार हो जाता है तो उसके दृढ़ संकल्प को डिगाने में किसी पुलिस की या फौज की कोई जबरदस्ती काम नहीं देगी.’’ सवाल हमारी सक्रियता का है और इसके बिना लोकतंत्र अधिक फलदायी नहीं बन पाएगा. गांधी आजादी के बाद शासन का रास्ता समझा गए हैं, बशर्ते हम समझना चाहें.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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