दिसंबर 2018 में घाना के एक विश्वविद्यालय से गांधी जी की मूर्ति हटाने की घटना का पूरा प्रामाणिक विश्लेषण...
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भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने अपनी घाना यात्रा के दौरान 14 जून, 2016 को घाना विश्वविद्यालय के लीगोन परिसर में महात्मा गांधी की एक प्रतिमा का अनावरण किया था. इसके बाद 12 सितंबर, 2016 को विश्वविद्यालय में कार्यरत अफ्रीकी अध्ययन, इतिहास, संगीत, वीडियो और कला के चार व्याख्याताओं ने घाना विश्वविद्यालय काउंसिल के समक्ष एक अपील दायर कर गांधीजी की प्रतिमा को वहां से, इस आधार पर हटाने का अनुरोध किया कि महात्मा गांधी ‘‘नस्लवादी’’ थे. अपनी अपील के समर्थन में उन्होंने ‘‘कलेक्टेड वर्क्स आफ महात्मा गांधी’’ के आनलाइन संस्करण से उद्धहरण दिए. आनलाइन संस्करण का प्रबंधन ‘‘गांधी सर्व फाउंडेशन, बर्लिन’’ द्वारा किया जाता है. तो पहले उन पांच उद्धहरणों पर निगाह डालते हैं.
उपनिवेश में यह सामान्य विश्वास प्रचलन में है कि भारतीय यहां के असभ्य अथवा मूल निवासियों से थोड़ा बेहतर हैं. बच्चों को भी इसी तरह से विश्वास करना सिखाया जाता है जिसके परिणामस्वरूप भारतीयों को भी अपरिषकृत काफिर की स्थिति में घसीट लाया गया है. (19 दिसंबर, 1894, खंड-प् पृष्ठ 193)
यदि वित्तीय परिचालन के लिहाज से देखे तो उसमें, उनकी सफलता से अनेक लोग जलते होंगे. कई भी यह समझ पाने में असमर्थ है कि ऐसे आन्दोलन का क्या अर्थ है, कि वे उसी वर्ग में लेन-देन करें जिसमें कि ये अर्ध विधर्मी या गैर ईसाई, स्थानीय लोग करते हैं और उन्हें उनकी रिहायशों तक ही सीमित रखा जाए तथा उन्हीं कठोर नियमों के अन्तर्गत लाया जाए जिनके माध्यम से ट्रांसवाल काफिरों को शासित किया जाता है. (5 मई, 1895, खंड-प् पृष्ठ 224-225)
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अभी तक यह भावना सामने आई है कि भारतीयों की स्थिति को काफिरों की स्थिति तक गिरा दिया जाएगा. (5 मई 1895, खंड-प् पृष्ठ 229)
हमारा एक निरंतर चलने वाला संघर्ष (का कारण) यूरोपीय लोगों द्वारा हम पर थोपा जा रहा ऐसा अपमानजनक स्तर है, जो हमें उन असभ्य काफिरों के स्तर तक गिरा देता है जिनका व्यवसाय शिकार है, जिनकी आकांक्षा एक पत्नी खरीदने के लिए कुछ मवेशी इकट्ठा करना और अपना जीवन अकर्मण्यता और नग्नता में बिताने का होता है. (खंड-प् पृष्ठ 409-410, 26 सितंबर 1896)
आपके याचिकाकर्ता द्वारा इस याचिका का प्रयोग का इरादा भारतीयों द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले स्थानों (लोकेशन) को लेकर है. यह उन्हें उन काफिरों के नजदीक बसा देगा जो निश्चित तौर पर इन काफिरों से श्रेष्ठ हैं. (खंड-प्प् पृष्ठ 270, 27 मई 1899)
बोअर सरकार ने भारतीयों को काफिरों के साथ जोड़कर उनका अपमान किया है. (खंड-प् पृष्ठ-59)
उपरोक्त टिप्पणियो के कारण घाना विश्वविद्यालय में महात्मा गांधी की मूर्ति को हटाने का निश्चय किया गया. हमें गांधी के इन वचनों को लेकर मनन करना होगा कि उन्होंने सन् 1894 में क्या कहा ! सन् 1895 में क्या कहा ! सन् 1899 एवं 1906 में क्या लिखा और सन् 1910 में उनके विचार क्या थे ? सन् 1894 में वे मात्र 25 वर्ष के हैं और भारत के बाहर उनका यह एक तरह से पहला आदानप्रदान है. गौरतलब है उनका पहला उद्धहरण 19 दिसंबर, 1894 को विधायिका/विधानसभा को लिखे गए ‘‘खुले पत्र’’ का हिस्सा है. पत्र की शुरुआत में वे लिखे गए पत्र का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि, ‘‘मेरा एकमात्र उद्देश्य भारत की सेवा करना है, जहां अनायास ही मेरा जन्म हुआ और वह मेरा मूल देश है. और इसी के साथ मेरा उद्देश्य अपने समुदाय और यूरोपीय वर्ग एवं इस उपनिवेश में बसे भारतीयों के मध्य बेहतर समझ बनाना है.’’ गांधी यहां अपनी निजी राय के मुकाबले जो कुछ तब सामान्य प्रचलन में था, उसकी बात कह रहे थे. उनका मूल उद्देश्य मूल निवासियों को नीचा दिखाना नहीं बल्कि भारतीय मूल के दक्षिण अफ्रीकी निवासियों के लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराना था. दूसरा उद्धहरण भी उसी खुले पत्र का हिस्सा है जिसे गांधीजी ने 13 अप्रैल, 1889 को अपने आलेख ‘‘खुला पत्र’’ में केप टाइम्स में लिखा था. तीसरा उद्धहरण गांधी जी का है ही नहीं. यह दक्षिण अफ्रीका गणराज्य के लार्ड रिपन (5 मई, 1895) को प्रस्तुत अपील का है, जिसे जोहान्सबर्ग एवं प्रिटोरिया में बसे व्यापारियों, दुकानदारों, दुकानदारों के सहायकों, फेरीवाले खानसामों, वेटर, मजदूर आदि ने लिखा है और इसमें भारतीयों के साथ भेदभाव की शिकायत की गई है. चौथा उद्धहरण भारत में गांधी जी द्वारा 26 सितंबर, 1896 को बाम्बे प्रेसीडेन्सी असोसिएशन द्वारा फ्रेमजी कासवजी संस्थान द्वारा आयोजित आमसभा का है, जो कि टाइम्स आफ इंडिया और बाम्बे गजट में छपा था. इसे ठीक से जांचे जाने की आवश्यकता है. इसमें असभ्य काफिर शब्द का उल्लेख चुनिंदा दक्षिण अफ्रीकी लोगों के लिए किया गया था और प्रत्येक समाज में इस तरह के लोग मौजूद रहते ही हैं. पांचवा उद्धहरण भी खुले पत्र से ही लिया गया है. यह महारानी के मुख्य सचिव जोसेफ चेम्बरलेन को प्रस्तुत याचिका का है और गांधीजी का इससे सीधा कुछ भी लेना देना नहीं है. वहीं अंतिम उद्धहरण इंडियन ओपीनियन के 6 जनवरी, 1906 के अंक से है. इसका संदर्भ सरकारी गजट में (ओरेंज रिवर कालोनी अध्यादेश) ‘‘रंगीन लोग’’ (कलर्ड पर्सन्स) की परिभाषा को लेकर है, जिसमें भारतीय भी शामिल हैं.
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हमें याद रखना होगा कि गांधीजी ने बारंबार यह कहा है कि किसी विषय पर मेरे विचारों में विरोधाभास दिखे तो जो मैंने बाद में कहा/लिखा है उसे मान्य किया जाए. इस लिहाज से गांधीजी के सारे कथोपकथनों को समझना होगा. हमें यह भी याद रखना होगा कि दक्षिण अफ्रीका में 24 वर्षीय गांधी की प्रार्थनासभा में सभी धर्मां/नस्लों के लोगों का लगातार आना था और वे हमेशा से सत्य, अहिंसा जैसे मूल्यों के पैरोकार रहे हैं. इतिहासकार रामचंद्र गुहा का कहना है कि अपने आरंभिक काल में गांधी नस्लवादी प्रतीत होते हैं, क्योंकि वे सभ्यताओं की वंशानुगतता में विश्वास रखते थे. परन्तु उम्र के बढ़ने के साथ उनमें लगातार पविर्तन आए. वहीं दूसरी ओर गांधीवादी विचारक एवं गांधी अध्ययन संस्थान, वर्धा के डीन सिबी के. जोसेफ इस बात को सिरे से नकारते हैं, और इसके पक्ष में सुविचारित तथ्य व तर्क भी प्रस्तुत करते हैं. सन् 1910 में गांधी जी ने टिप्पणी की थी, ‘‘नीग्रो इस धरती (अफ्रीका) के मूल निवासी हैं, वहीं दूसरी ओर गोरे लोगों ने यहां की भूमि पर जबरदस्ती कब्जा कर खुद को स्थापित कर लिया है.’’ इसके भी पूर्व सन् 1908 में भी वे स्पष्ट कर चुके थे (स्थानीय) अफ्रीकियों के साथ ही साथ भारतीयों को भी यूरोपीय लोगों के समकक्ष रखा जाना चाहिए. उसके अगले ही साल उन्होंने कहा था कि यदि नस्लीय भेदभाव के खिलाफ अफ्रीकी लोग अहिंसा का रास्ता अपनाते हैं तो, देशज लोगों की प्रत्येक समस्या का निराकरण संभव है. इसके बाद के समय यानी गांधी के सन् 1915 में भारत लौटने से लेकर सन् 1948 में उनकी मृत्यु तक के क्रियाकलापों पर नजर दौड़ाएं तो साफ नजर आता है कि दुनिया का प्रत्येक वंचित व्यक्ति गांधी जी की ओर आशा लगाए बैठा है. यह बात अमेरिका के तत्कालीन नीग्रो आंदोलन में भी साफ झलकती है. गांधी जी सन् 1920 में जारी अपनी पुस्तक ‘‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह’’ में लिखते हैं- अफ्रीकी लोग सच और झूठ के बीच में फर्क को सटीक तौर पर समझते हैं.
यहां पर गांधी जी को किसी प्रकार का संरक्षण प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि ऐसी हैसियत शायद किसी की भी नहीं है. गांधी अपनी प्रत्येक आलोचना का जवाब स्वयं देकर ही गए हैं. एक समय उन्होंने अफ्रीकियों को सलाह दी थी कि, ‘‘आप लोगों को एक बार पुनः अफ्रीकी बनना ही होगा.’’ यदि वे नस्लवादी होते तो उन्हें कुछ और बनने की सलाह देते न की पुनः अफ्रीकी बनने की. वास्तविक समस्या यह है कि हम विश्लेषण की प्रक्रिया को बिना अध्ययन व शोध के प्रारंभ कर देते हैं और जो भी कटा-फटा सामने आता है उसे ही सबकुछ मानकर पिल पड़ते हैं. मूर्ति हटाने के पीछे एक तर्क था कि गांधीजी द्वारा अफ्रीकी मूल निवासियों को ‘‘काफिर’’ कहकर पुकारना. याचिकाकर्ताओं का मानना था कि यह मूल शब्द स्थानीय निवासी काले दक्षिण अफ्रीकी लोगों को कलंकित करता है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह सच भी है. लेकिन उस समय यह शब्द सामान्य प्रचलन व संबोधन में था. गौरतलब है कि जीओ मकाल थील ने सन् 1886 में एक असाधारण पुस्तक ‘‘काफिर फोकलोर-ए सिलेशन फ्राम ट्रेडीशनल टेल्स’’ प्रकाशित की थी. यहां यह जानना भी रोचक होगा कि दक्षिण अफ्रीका में उन दिनों काफिर शब्द को सामान्यतया उन काले देशज से जोड़ा जाता था जो ‘‘आयातित गुलामों’’ के वंश के नहीं थे और वे केप कालोनी (उपनिवेश) के पूर्वी छोर पर निवास करते थे. यह कमोवेश अमाझोसा जनजाति के सदस्य थे. उस दौरान यह उनका आधिकारिक संबोधन था. वहीं सन् 1911 में इन्साक्लोपीडिया ब्रिटानिका के ग्यारहवें संस्करण में एक आलेख में इस शब्द के बारम्बार आवृत्ति होती है. इसमें काफिर को इस तरह वर्णित किया गया है, ‘‘वर्तमान में इसका प्रयोग बन्टूग्रों के व्यापक परिवार की तरह किया जाता है, जो कि केप उपनिवेश के बड़े हिस्से, पूरे नटाल एवं जुलुलेण्ड और झाम्बेजी के पूर्वी तट जहां पर पुर्तगालियों का प्रभुत्व है, निवास करते हैं. यह शब्द वैसे तो व्यापक तौर पर दक्षिण अफ्रीका में रह रहे किसी भी नीग्रो के लिए प्रयोग में लाया जाता है.’’ गांधी जी उस दौरान दक्षिण अफ्रीका में ही रह रहे थे. यह इस बात का भी द्योतक है कि इस शब्द के प्रयोग के पीछे गांधी जी की कोई दुर्भावना भी नहीं थी. यहां यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि कुछ वर्षां पूर्व तक अफ्रीका मूल के काले लोगों के लिए ‘‘नीग्रो’’ शब्द का प्रयोग होता रहा है. यहां तक कि मार्टिन लूथर किंग जूनियर को नोबल पुरस्कार सम्मान पत्र में भी उन्हें ‘‘नीग्रो’’ ही संबोधित किया गया है. आज इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है.
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अपने यहां देखें और विशेषकर गांधी के संदर्भ में तो, सामने आता है कि गांधी ने अस्पृष्य समाज के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग किया. उस शब्द का विरोध हुआ और बाद में हरिजन को दलित शब्द से बदल दिया गया. अब दलित शब्द भी ‘‘संकट’’ में हैं. इस याचिका का सबसे सनसनीखेज व दुखद हिस्सा यह है कि इसमें याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि गांधी ने भारतीय दलितों और भारत के काले ‘‘अछूतों’’ के सुधार प्रयासों के खिलाफ अभियान चलाया और अपनी मृत्यु तक जाति प्रथा को बनाए रखने की कोशिश की. यह कह पाना कठिन है कि ऐसा उन्होंने जानकारी के अभाव में कहा अथवा उनके कुछ और निहितार्थ थे. हम सभी जानते हैं कि गांधी ने जाति प्रथा के खिलाफ जबरदस्त संघर्ष किया और दुनिया में संभवतः एकमात्र उदाहरण होगा कि एक दशक से भी ज्यादा समय तक ‘‘हरिजन’’ नामक पत्र निकाला जो कि सिर्फ हरिजनों की समस्याओं और विषमताओं पर एकाग्र था. हम यह भी जानते हैं कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे जाति प्रथा के घनाघोर विरोधी हो गए थे और वे ऐसे विवाह में शिरकत ही नहीं करते थे, जिसमें एक पक्ष हरिजन/दलित न हो. इस हेतु महादेव भाई जो उनके सचिव रहे और जिन्हें वे अपना पांचवां पुत्र भी मानते थे के बेटे नारायण भाई के विवाह में सम्मिलित न होना है श्रेष्ठ उदाहरण है.
वास्तविकता तो यही है कि विश्व में दक्षिण पंथी विचारधारा का फैलाव ही ऐसी जटिलताएं उत्पन्न कर रहा है. होना तो यह चाहिए था कि घाना विश्वविद्यालय के समक्ष जैसे ही महात्मा गांधी की प्रतिमा को हटाने का प्रस्ताव आया था, भारत सरकार को त्वरित पहल कर मूर्ति को वहां से हटवा लेना चाहिए था. इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने की कतई कोई आवश्यकता नहीं है. ऐसा भी समाचार है कि संभवतः अफ्रीकी शहर मलावी में भी गांधी जी की एक प्रतिमा स्थापित होने जा रही है. उपराष्ट्रपति अपने दौरे के दौरान उसका अनावरण करेंगे. अतः यह पहले पता कर लेना चाहिए कि वहां तो ऐसे किसी विवाद की संभावना नहीं है ? वैसे भी विचार ही मुख्य है मूर्ति गौण है. हमारे यहां भी मूर्ति स्थापना का नया दौर जारी है. सारी दुनिया एक वैचारिक अंतरद्वंद्व से गुजर रही है और गांधी इससे उबरने का एक लोकतांत्रिक जरिया बनते जा रहे है. ऐसे में पूंजीवाद व पूंजी पर टिकी वैश्विक शासन व्यवस्था, गांधी व उन जैसे तमाम विचारों को ध्वस्त करने का कोई मौका नहीं छोड़ेगी. घाना विश्वविद्यालय ने गांधी पर प्रश्न लगाकर एक सकारात्मक पहल भी की है, क्योंकि इस बहाने गांधी को पुनः बांचना आवश्यक हो गया है और इससे गांधी जी को लेकर अधिक स्पष्टता ही बनेगी. गांधी जी की मूर्ति लगने पर सवाल उठाने का एक लाभ यह भी हुआ है कि गांधी महज प्रतीक से उठकर एक बार पुनः विचार के रूप में प्रस्थापित हुए हैं. गांधी स्वयं भी एक मायने में मूर्तिभंजक रहे हैं और स्वयं भी इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते, इसलिए हमें भी करनी चाहिए. हमें खुशी होनी चाहिए कि इस बहाने हमने एक बार पुनः वैचारिक स्तर पर गांधी विचार को परखा और पाया कि वे लगातार प्रासंगिक बने हुए है. शब्दों का आडंबर गांधी विचार को विचलित नहीं कर पाया. मार्क्सवादी चिंतक पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ‘‘मजबूरी नहीं मजबूती का नाम हैं महात्मा गांधी.’’ वे इसे विस्तार देते हुए कहते हैं, ‘‘सचमुच का जो अहिंसक समाज होगा उसमें गांधी के शब्द गहरे अर्थों में अप्रासंगिक होंगे. क्योंकि ‘‘कम्बन रामायण’’ के रामराज्य वर्णन की तर्ज पर कहें तो उस समाज में सभी अहिंसक होंगे. अलग से किसी को अहिंसक होने की आवश्यकता नहीं होगी. कम्बन के रामराज्य में कोई सच नहीं बोलता, क्योंकि कोई झूठ नहीं बोलता. इसलिए झूठ की तुलना में सच ये फैसला करने की जरूरत नहीं है. कोई अपरिग्रह नहीं करता कम्बन के रामराज्य में, क्यांकि कोई परिग्रह नहीं करता. कोई सदाचारी नहीं है क्योंकि कोई व्यभिचारी नहीं है.’’ गांधी जी ऐसे ही आत्मविश्लेषक रामराज्य की परिकल्पना कर रहे थे. उनकी सफलता सर्वथा संदिग्ध ही थी. फिर भी वे हार से डरे नहीं क्योंकि वे सच जानते थे. उनका कहना था, ‘‘मेरे धर्म की भौगौलिक सीमाएं हैं ही नहीं. उसमें मेरी आस्था सच्ची है तो भारत के लिए जो मेरा प्रेम है, उसे भी वह पार कर जाएगी.’’ ऐसा हुआ भी है. घाना विश्वविद्यालय के निर्णय की चहुंओर समीक्षा हो रही है और गांधी विचार उनके 150वें जन्मदिन पर पुनः वैश्विक चर्चा में अधिक पैनेपन से आ गया है. एक अंग्रेजी कहावत है, ‘‘जो होता है अच्छे के लिए होता है.’’
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)