भारत में हर 13 में से एक व्यक्ति मानसिक बीमारी से पीड़ित है. अगले पांच बरस में यह अनुपात हर पांच में से एक व्यक्ति तक पहुंच सकता है.
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जिस एक रिश्ते में हमें सबसे अधिक किसी के साथ रहते हुए एक दूजे का ख्याल रखना होता है, वह विवाह है. इसलिए, एक-दूसरे को न समझने के ‘गिले-शिकवे’ सबसे अधिक यहीं से आते हैं. दंपति के बीच ‘समझ’ बढ़ने के साथ चुनौती भी बढ़ गई. परवरिश, दांपत्य जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा है.
पिछले पंद्रह से बीस बरस इस मायने में एक ‘नई’ दुनिया के गवाह रहे हैं कि परिवार का स्वरूप बदल रहा है. हम एक संयुक्त परिवार से सफर आरंभ करते हैं, उसके बाद धीरे-धीरे महानगर में ‘हम दो और हमारे दो’ के बीच सिमटकर रह जाते हैं. इससे न केवल बच्चों को मिलने वाले स्नेह, प्रेम और आत्मीयता की धूप कम हो रही है, बल्कि हमें समझाने, संबल देने वाले ‘बड़ों’ का साथ भी सीमित होता जा रहा है.
यह विभाजन अनिवार्य दिखता है. करियर के अवसर, शिक्षा और सेहत की सीमित सुविधा इस पलायन को हर दिन और अधिक जरूरी बनाते जा रहे हैं.
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यह कुछ ऐसा है कि आपको सुबह पता चलता है कि बाढ़ का पानी दोपहर तक आपके गांव को घेर लेगा. इतना ही वक्त बचा है, अपना सामान समेटकर यहां से निकलना होगा. कोई विकल्प नहीं है. बस निकलिए, नए सफर को!
इसलिए, छोटे परिवार, पति-पत्नी और बच्चों में सिमटे परिवार हमारे समय की कठोर सच्चाई हैं. इनको मिलकर, अपनी दुनिया के संकट का सामना करना है, उनसे निकलने के रास्ते तलाशने हैं.
परवरिश पर सवाल, संकट के कुछ उदाहरण…
उन्नीस बरस के एक बच्चे को माता-पिता की पढ़ाई को लेकर दी जाने वाली सलाह, पाबंदियां इतनी अखरीं कि उसने उनके साथ अपनी बहन की हत्या यह सोचकर करने का फैसला कर लिया कि ‘अब नहीं सहा जाता’. यह मध्यमवर्गीय परिवार दिल्ली में रहता था.
दिल्ली के ही एक बड़े बिजनेसमैन की हत्या की खबर सुर्खियों में रही. उनके भी बेटे ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि पिता मनचाही रकम नहीं दे रहे थे. इसके साथ ही यह भी बात सामने आई कि पिता पहले बेटे की अक्सर पिटाई करते थे. उनका व्यवहार रूखा था.
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देश में मानसिक रोगों का इलाज करने वाले सबसे बड़े संस्थान ‘नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेस’, बेंगलुरू के मुताबिक भारत में 80 प्रतिशत युवा गुस्से में हैं. इसके अध्ययन के अनुसार, करीब 35 प्रतिशत युवाओं ने ये माना है कि वह गुस्सा आने पर अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं. करीब 21 प्रतिशत युवा गुस्से में मारपीट भी करते हैं.
इसके अध्ययन में जिस पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए, वह है 37 प्रतिशत युवाओं का यह मानना कि माता-पिता के सख़्त व्यवहार की वजह से वो मानसिक रूप से परेशान हो जाते हैं.
‘वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाईजेशन’ के मुताबिक भारत में हर 13 में से एक व्यक्ति मानसिक बीमारी से पीड़ित है. अगले पांच बरस में यह अनुपात हर पांच में से एक व्यक्ति तक पहुंच सकता है.
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घर-घर तक इंटरनेट की पहुंच पर हम कितना भी इतरा लें, लेकिन सच तो यही है कि एक समाज के रूप में हम उसे संभालने के लिए ठीक से तैयार नहीं हैं. कोई चीज कितनी ही भली क्यों न हो, लेकिन अगर उसे आप संभालना नहीं जानते तो उसे बिगड़ते देर नहीं लगती.
तो फिर यह तो इंटरनेट का मामला है. जिस पर दुनियाभर की कंपनियों, व्यापारियों की नजर है. इंटरनेट और स्मार्टफोन मिलकर एक ऐसी दुनिया रच रहे हैं, जो हमें घर,स्कूल और परिवार के बीच ‘सोशल’ दुनिया में निरंतर अकेलेपन की ओर धकेल रही है.
बच्चे निरंतर समाज से दूर हो रहे हैं. माता-पिता के पास समय नहीं. बुजुर्ग दूर हैं. ऐसे में वह बच्चों को फोन थमा देते हैं. इसमें कुछ हद तक भाव होता है, ‘हमें परेशान मत करो, अपना फोन संभालो और शांत रहो’.
स्मार्टफोन के सहारे बच्चे इंटरनेट की दुनिया में कहां तक उतर गए हैं, इसका पता हमें तब जाकर चलता है, जब किसी दिन ‘ब्लू व्हेल’ जैसे खतरे सामने आते हैं. भारत ही नहीं अमेरिका, यूरोप सब जगह की सरकार इंटनरेट के आगे लगभग असहाय हैं. बच्चे वहीं अधिक सुरक्षित रहेंगे, जहां समाज अपनी भूमिका अधिक सजगता, स्नेह से निभाएगा.
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हमें हर कीमत पर बच्चे को समय, स्नेह और साथ मुहैया कराना होगा. ध्यान रहे, बच्चों को सुविधा मजबूत नहीं बनाती, उसे मुंहमांगी चीजें न मिलने पर वह कमजोर नहीं होता. हम बड़े ही इस उधेड़बुन में उसे दूसरी ओर धकेल रहे हैं. हम उसे अधिक सुख देने के चक्कर में उसे उसके हिस्से के स्नेह से दूर कर रहे हैं, यही परवरिश का सबसे बड़ा संकट है.
बच्चों पर हिंसा, उससे की जाने वाली सख्ती सब आप पर ही लौटकर आनी है. इसलिए जो भी करें, उसमें सबसे पहले अपने ‘रिटर्न’ का ख्याल जरूर रहे.
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