डियर जिंदगी: फैसला कौन करेगा!
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डियर जिंदगी: फैसला कौन करेगा!

इस बात को गंभीरता से समझने की जरूरत है कि जीवन किसका है. इस पर किसका अधिकार है! सपने किसके हैं, दायित्व किसका है और अंततः जिम्मेदारी किसकी!

डियर जिंदगी: फैसला कौन करेगा!

ऐसा कुछ जो हमने सोचा नहीं था, ऐसा कुछ जो कल्पना से परे, नियंत्रण से बाहर था, उसके सामने आने पर हमारा व्यवहार कैसा था, उससे ही जीवन की दिशा तय होती है.

बीते एक दशक में जीवन बहुत अधिक गतिशील हुआ है. शहरों में पलायन बढा. एक शहर से दूसरे शहर और दूसरे से तीसरे की ओर आना-जाना भी तेज हुआ.

जीवन के अलग-अलग मोड़ पर ऐसी स्थितियां अक्सर सामने आने लगी हैं, जो एक ही पटरी पर चलने वाली जिंदगी से बहुत अधिक उलट हैं.

सरकारी नौकरियां धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं. निजी क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है. इसके साथ ही हमारे काम करने की स्थितियां तेजी से बदल रही हैं. हमारे सामने नए अवसर, चुनौतियां दोनों ही 'बिन बुलाए मेहमान' की तरह सामने आ रही हैं.

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समय के साथ निर्णय लेने के तरीकों का भी बदलना बहुत जरूरी है. दस साल पहले हम किसी चीज के बारे में किस तरह सोचते थे, अगर आज भी वैसे ही सोचते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमने समय की ओर से आंखें मूंद रखी हैं.

उत्तर प्रदेश के फैजाबाद से रमेश त्रिपाठी लिखते हैं, 'पिता सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल हैं. उनकी अपेक्षा है कि बेटा शिक्षा के क्षेत्र में करियर बनाए, क्योंकि जीवन बहुत अधिक सुरक्षित और चिंता से परे है.' जबकि रमेश एमबीए की तैयारी कर रहे हैं. 'लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स' जाने का सपना रखते हैं. अब तक काम का प्रदर्शन इसका समर्थन करता है. सरकारी नौकरी में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं. वह अर्थशास्त्र में गहरी रुचि रखते हैं और उसी ओर जाना चाहते हैं. पिता-पुत्र के बीच इस बात को लेकर गहरा मतभेद है.

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पिता का कहना है कि उन्होंने दुनिया देखी है. सरकारी नौकरी में जीवन बेहद सुरक्षित, सुखी है, उसका कोई मुकाबला नहीं.दूसरी ओर पुत्र हैं जिनका मानना है कि अब दुनिया बदल चुकी है और प्रतिभा के विकास के लिए पहले की तुलना में कहीं अधिक अवसर हैं. साहस के साथ आगे बढ़ना, चुनौतियों को स्वीकार करते हुए वह रास्ता पकड़ना, जिसमें अपनी अभिव्यक्ति का अधिकतम अवसर है, वही सही रास्ता है!

इस बात को लेकर दोनों के बीच मतभेद अब 'मनभेद' तक बढ़ गया है. जैसे ही हम एक-दूसरे से असहमति को बर्दाश्त करना बंद करते हैं असल में जिंदगी को 'तनाव क्षेत्र' की ओर भेजने का काम शुरू कर देते हैं.

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इस बात को गंभीरता से समझने की जरूरत है कि जीवन किसका है. इस पर किसका अधिकार है! सपने किसके हैं, दायित्व किसका है और अंततः जिम्मेदारी किसकी!

जंगल कैसे अपने तरह-तरह के पेड़, पौधों, वनस्पतियों का ख्याल रखता है. वह देवदार के साथ ही गुलाब और गेंदे का भी एक सी भावना से पालन-पोषण करता है. जंगल एक सीमा तक सबको संरक्षण देता है, लेकिन उसके बाद उनके आगे बढ़ने के ख्याल, रास्तों में कोई बाधा नहीं पहुंचाता. उसके लिए सबके सपने बराबर हैं. जो पिता हैं, उन्हें यह समझने की बहुत  जरूरत है कि असल में वह अपने हिस्से के सपने जी चुके हैं. अब यह उनके बच्चों पर है कि वह अपनी आंखों में उनके ख्वाब रखें या कोई अपना ख्वाब बुन लें.

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संतान पर अपने अधिकार को जितना सीमित रखा जाएगा, जीवन उतना ही सुखद, आत्मीय होगा! फूल को खिलने के लिए धूप, खाद, पानी देना है, क्योंकि फूल हमें अच्छे लगते हैं, लेकिन उसकी सुगंध, दिशा पर नियंत्रण नहीं रखना है!

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