अमेरिकी राज्य सचिव, (विदेश मंत्री) ने कहा, 'महात्मा गांधी सारी मानव जाति की अंतरात्मा के प्रवक्ता थे.'
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चाहता हूं मेरे देश का लगभग
बे पढ़ा-लिखा आदमी
मिटाये इस परिस्थिति को बढ़कर
और होगा वह गांधी को समझने से
उसके रहने और करने के ढंग को
अपनाने से
उससे हटकर कदापि नहीं होगा कुछ
जो कुछ होगा सो उसके पास जाने से.
गांधी पंचशती, भवानी प्रसाद मिश्र
बापू को गए 70 बरस बीत गए. यह महज़ भावेश नहीं है कि वे आज भी हमारे बीच सतत नजर आते हैं और हम उनसे आंखें चुराते दिखते हैं. गांधी 150 के धूम-धड़ाके में कुछ भी नहीं बदला. गरीबी, अस्पृश्यता, गैर-बराबरी, सांप्रदायिकता, कृषि की बर्बादी और किसानों की दीनता. ग्रामोद्योग व शिल्प का स्मृति चिन्ह में परिवर्तित हो जाना. खादी का पेटेंट हो जाना और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शोरूम में बिकना. राजनीति का नीचे से और नीचे आते जाना शराब के राजस्व से सरकार चलाना. ढोंगी बाबाओं का गांधी कथा बाचना. हमेशा धमकी की भाषा में बात करना. पड़ोसी को नीचा बताना. आतंकवाद के सिवा किसी अन्य को समस्या न मानना. इस लंबी फेहरिस्त को कहीं तो रोकना ही होगा. तो यहीं रोकते हुए कहना पड़ता है इस सब के बावजूद बापू को राष्ट्रपिता मानने का ढोंग करना और उनकी कमोबेश प्रत्येक नसीहत को नकारना हमारी आज की व्यवस्था का एकमात्र खेल है. अब भारत में विवाद का मुद्दा राफेल है, भूख से मरता बच्चा नहीं. यहां विवाद का मुद्दा गठबंधन व महागठबंधन पर तू-तू मैं-मैं है, बेरोजगारी से आत्महत्या करता युवा नहीं है. तो फिर सोचने में आता है कि बापू ने आखिर क्या इस सब के लिए प्राणों का त्याग किया था?
एक बात पिछले कई दशकों से लगातार दोहराई जा रही है कि आजादी के बाद गांधी जी ने कांग्रेस को लोकसेवा संघ में परिवर्तित हो जाने को कहा था. उनका मानना था कि अब सारा ध्यान ग्रामीण पुनर्निर्माण, भारतीय गांव को नए सिरे से तैयार करने, व कृषि, शिल्पकला व ग्रामोद्योग से आत्मनिर्भरता प्राप्त करने पर होना चाहिए. ग्रामीणों को साफ-सफाई रखने के लिए शिक्षित करें. और स्थानीय, राज्य व राष्ट्रीय चुनावों में ग्रामीणों को मतदाता सूची में दर्ज कराएं. अधिकांश का मानना है कि कांग्रेस ने गांधीजी के दृष्टांत का पालन नहीं किया. काफी हद तक ठीक बात है परंतु इसी के समानांतर यह भी उतना ही सत्य है कि गांधी ने किसी और को रोका भी नहीं कि वे इस दिशा में काम ना करें. जो भी गांधी को तब मानते थे या आज मजबूरी में मानने लगे हैं वे गांधी के सपने को पूरा कर सकते थे या अब पूरा कर सकते हैं. परंतु कहीं भी कोई ऐसी पहल नजर नहीं आती. और ऐसा सिर्फ कांग्रेस, भाजपा, बसपा, समाजवादी जैसे राजनीतिक दलों के साथ ही नहीं बल्कि अपवाद छोड़ दे तो अधिकतर गांधीवादी संस्थाओं और उनपर काबिज लोगों के साथ भी है. उनकी खादी भी अब पोलिएस्टर खादी हो गई है और संघर्ष के स्थान पर यथास्थितिवाद की स्वीकार्यता और संपत्ति प्रबंधन ही सब कुछ हो गया है. खैर!
30 जनवरी 1948 का दिन अन्य दिनों जैसा ही शुरू हुआ. एक दिन पहले पंडित नेहरू पंजाब में थे और वहां उन्होंने सांप्रदायिक तत्वों को जबरदस्त फटकार लगाई थी. इसलिए 30 जनवरी 1948 के हिंदुस्तान टाइम्स की हेडलाइंस थी, “राज्यों में रक्तदीन क्रांति, नेहरू ने सांप्रदायिक तत्वों को खुले में आने की चुनौती दी” उसी शाम जो हुआ वह इस खबर की त्वरित प्रतिक्रिया थी या एक पूर्व निर्धारित षडयंत्र? शायद दोनों ही. गांधी दुनिया के ऐसे बिरले व्यक्ति थे, जिनकी कथनी और करनी में भेद नहीं था. राई-रत्ती भर भी नहीं. उस दिन शाम करीब 4:30 बजे आभा उनका भोजन लेकर आई. उनका अंतिम भोजन था, बकरी का दूध, कच्ची उबली सब्जियां, नारंगी, ग्वारपाई का रस मिला अदरक, नींबू और घी का काढ़ा. इस दौरान वल्लभ भाई पटेल से उनकी चर्चा हो रही थी. विषय नेहरु व उनके (पटेल के) मध्य विवादों को लेकर उड़ रही अफवाहों का था. इसका समाधान भी बापू के पल्ले डाल दिया गया. प्रार्थना सभा में जाने में देरी हो रही थी. अंततः आभा ने उन्हें घड़ी दिखाई और बोले, “मुझे अब जाना होगा.” आभा व मनु के कंधों पर हाथ रखते, सुस्ताते और मजाक करते प्रार्थना स्थल की ओर चले. उनके एक जीवनीकार लुई फिशर ने उनके अंतिम संवादों को इस तरह लिपिबद्ध किया है. बापू ने गाजर के रस की चर्चा की, जो सुबह आभा ने उन्हें पिलाया था.
वे बोले- अच्छा, तू मुझे जानवरों का खाना देती है! और हंस पड़े।
आभा बोली- बा इसे घोड़ों का चारा कहा करती थी।
गांधी ने मज़ाक में कहा- क्या मेरे लिए यह शान की बात नहीं है कि जिसे कोई नहीं चाहता, उसे मैं पसंद करता हूं।"
प्रार्थनास्थल के पास पहुंचकर वे बुदबुदाए, “मुझे दस मिनट की देरी हो गई. देरी से मुझे नफरत है. मुझे यहां ठीक पांच बजे तक पहुंच जाना चाहिए था.” इसी बीच एक व्यक्ति भीड़ से निकल कर आया. दो फुट दूरी से उसने गांधी जी को तीन गोली मारी. पहली गोली लगी तो गांधीजी का उठा पांव नीचे गिर गया, परंतु खड़े रहे. दूसरी गोली लगने से सफेद वस्त्रों पर खून के धब्बे चमकने लगे, बापू का चेहरा सफेद पड़ गया, हाथ नीचे लटक गए. तभी तीसरी गोली चली गांधी के मुंह से शब्द निकले “हे राम” वे जमीन पर गिर पड़े. इस विस्तार में जाना इसलिए आवश्यक जान पड़ा कि उनके अंतिम कुछ मिनट हमें बताते हैं कि अत्यधिक तनावग्रस्त वातावरण जिसमें सांप्रदायिकता का दावानल एक ओर और दूसरी ओर दो शीर्ष नेताओं के मतभेद सार्वजनिक हो गए थे में भी बापू को तनाव रहित रहना आता था और वे दूसरों का तनाव भी दूर करते थे.
उनकी मृत्यु से भारत विश्व में एक नई काल अवधारणा का आरंभ हुआ . गांधी के पहले का भारत/विश्व व गांधी के बाद का भारत/विश्व/ऐसा सम्मान या स्वीकार्यता शायद ही किसी ऐसे अन्य व्यक्ति को मिली हो जिसका पूरा जीवन राजनीतिक संघर्ष में बीता हो तब अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था, “गांधी ने सिद्ध कर दिया कि केवल प्रचलित राजनैतिक चालबाजियों और धोखाधोखाधडियों के मक्कारी भरे खेल के द्वारा ही नहीं बल्कि जीवन के नैतिकतापूर्ण श्रेष्ठतर आचरण के प्रबल उदाहरण द्वारा भी मनुष्यों का एक बलशाली अनुगामी दल एकत्र किया जा सकता है।“
अमेरिकी राज्य सचिव, (विदेश मंत्री) ने कहा, “महात्मा गांधी (Mahatma gandhi) सारी मानव जाति की अंतरात्मा के प्रवक्ता थे.” जापान में मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च सेनापति डगलस मैकआर्थर ने कहा, “सभ्यता के विकास में, यदि उसे जीवित रहना है, तो सब लोगों को यह विश्वास अपनाना होगा कि विवादास्पद मुद्दों को हल करने में बल के सामूहिक प्रयोग की प्रक्रिया बुनियादी तौर पर न केवल गलत है, बल्कि उसी के भीतर आत्म विनाश के बीच विद्यमान हैं.” एक अन्य प्रतिक्रिया सर स्टैफई क्रिप्स पर गौर करिए वे कहते हैं, “मैं किसी काल के और वास्तव में आधुनिक इतिहास के ऐसे किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं जानता, जिसने भौतिक वस्तुओं पर आत्मा की शक्ति को इतने जोरदार और विश्वासपूर्ण तरीके से सिद्ध किया हो.” अंत में इस अनूठी श्रद्धांजलि पर गौर करिए . न्यूयॉर्क के “पीएम” नामक समाचार पत्र में एल्बर्ट डयूत्श ने व्यक्त किया, “जिस संसार पर गांधी की मृत्यु की ऐसी श्रद्धापूर्ण प्रतिक्रिया हुई, उसके लिए अभी कुछ आशा बाकी है.
वास्तविकता तो यही है कि तमाम राजनीतिक ढकोर्सलों के बावजूद आज भी नैतिकता के स्तर पर खरे उतरने का पैमाना तो महात्मा गांधी ही हैं. उनकी पुण्यतिथि किसी समारोह की तरह मनाने के बजाय समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सौहार्द फैलाने के नजरिए से मनाई जाना चाहिए . गांधी के देश में मॉब लिंचिंग की स्वीकार्यता जहां पतन के स्तर को समझा रही है . वहीं दूसरी और तमाम विपरीत परिस्थितियों और शासन के तिरस्कार के बावजूद किसान का खेती से जुड़ा रहना बापू को स्वयं सिद्ध कर रहा है . गांधी कभी कोरी भावनात्मकता का शिकार नहीं हुए और न हमें होना है . बापू कहते थे, “मनुष्य का सच्चा शिक्षक वह स्वयं है .” क्या हम स्वयं को शिक्षित करेंगे?
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)