दुनिया का शायद ही कोई और संविधान होगा जिसका पहला शब्द ‘सामाजिक न्याय’ हो. यानी हमारे पूर्वजों का यह विश्वास था कि बिना सामाजिक न्याय स्थापित किए गणतंत्र का रथ आगे नहीं बढ़ पाएगा.
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स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना, फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का. यदि स्वराज्य हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुंह ताकना शुरू कर दें, तो वह स्वराज्य सरकार किसी काम की नहीं होगी.’’
- महात्मा गांधी - 1925
भारतीय संविधान की स्थापना के 68 बरस पश्चात अपने गणतंत्र दिवस को मनाते या दोहराते कुछ प्रश्न लगातार कौंधते रहते हैं. क्या हम ठीक दिशा की ओर जा रहे हैं या भ्रमित हो गए हैं? सवाल भी पुराना है और तमाम लोगों ने अपने-अपने तर्कों से इसका जवाब दे भी दिया है. हर पांच साल में खुद को ‘किंग मेकर’ समझने के अतिरेक में एक बार पुनः कदम ताल करते ही नजर आते हैं. तमाम तरह से यह सिद्ध कर दिया जाता है कि हमने असाधारण प्रगति की है, जीवन के हर क्षेत्र में. परंतु वास्तविकता तो यह है कि संविधान की पहली पंक्ति- समस्त नागरिकों को, ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय’ को मूर्त रूप दे पाने में काफी हद तक असफल साबित हुए हैं. दूसरी पंक्ति, ‘विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता’ इन सब पर तो दो कदम पीछे ही चले हैं. करणी सेना का आविर्भाव और भारतीय प्रशासनिक व राजनीतिक तंत्र की असफलता इसका नवीनतम उदाहरण है. इस साल का गणतंत्र दिवस इन्हीं की काली छाया में समारोहित हो रहा है. राजपथ के बाहर का भारत कुछ और ही दिखा-समझा रहा है. क्या हम इन परिस्थितियों में अपने संविधान और उसके निर्माण की प्रक्रिया का पुनरावलोकन करने का प्रयास करेंगे और इस बात पर सहमत होंगे कि गणतंत्र दिवस छुट्टी मनाने का अवसर नहीं बल्कि कुछ कर गुजरने का निमंत्रण है?
दुनिया का शायद ही कोई और संविधान होगा जिसका पहला शब्द ‘सामाजिक न्याय’ हो. यानी हमारे पूर्वजों का यह विश्वास था कि बिना सामाजिक न्याय स्थापित किए गणतंत्र का रथ आगे नहीं बढ़ पाएगा. गौरतलब है कि सन् 1830 ई. में भारत के एक ब्रिटिश गवर्नर सर चार्ल्स मेटकाफने ने लिखा था, ‘ये ग्राम समाज छोटे-छोटे प्रजातंत्र हैं, जिन्हें अपनी आवश्यकता की लगभग हर वस्तु अपने भीतर ही मिल जाती है और विदेशी संबंधों से लगभग स्वतंत्र होते हैं. वे ऐसी परिस्थितियों में भी टिके रहते हैं, जिनमें हर दूसरी वस्तु का अस्तित्व मिट जाता है. ग्राम समाजों का यह संघ जिनमें से प्रत्येक समाज अपने-आप में एक छोटा सा स्वतंत्र राज्य होता है, उनके सुख का बहुत हद तक साधन बनता है और उसके अंतर्गत वे बड़ी मात्रा में स्वतंत्रता और स्वाधीनता का उपभोग करते हैं.’
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आजाद भारत की परिकल्पना में भी विकेंद्रीकृत व्यवस्था का ही स्थान था. परंतु हम देख रहे हैं जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है भारत एक अधिक केंद्रीकृत व्यवस्था का परिचालक बनता जा रहा है. त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की स्थितियां हमसे छुपी नहीं हैं. आज कहने को तो उनके पास असीम अधिकार हैं, ग्राम पंचायत को तो संसद के बराबरी के संस्थान की संज्ञा दी जाती है, परंतु पूरी पंचायतीराज व्यवस्था की नकेल राज्य सरकारों के हाथ में हैं और प्रशासनिक तंत्र सर्वेसर्वा की तरह व्यवहार करता है, वित्तीय संसाधनों का आबंटन और उन पर निगरानी दोनों ही इन संस्थाओं पर नकेल डालने का काम करते हैं. इतना ही नहीं हमारी पूरी अर्थव्यवस्था अब उद्योग व शहर केंद्रित हो जाने की वजह से गांवों की आत्मनिर्भरता अब गुजरे जमाने के किस्से की तरह दिखाई देती है. विदेशी निवेश की चाहत ने पूरी की पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था के आत्मनिर्भर हो पाने की किसी भी संभावना को नकार दिया है. ऐसे में सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक न्याय के आधार पर राष्ट्र निर्माण की परिकल्पना ही अब खोखली नजर आ रही है.
वहीं दूसरी ओर भारतीय गणतंत्र में हिंसा की स्वीकार्यता लगातार पैठ बनाती जा रही है. संविधान निर्माताओं ने हिंसा, फिर वह शासन की ओर से हो या जनता की ओर से दोनों का निषेध सुनिश्चित किया था. इसीलिए भारत की आजादी के पहले ही संविधान सभा ने मौलिक अधिकारों को स्वीकृति प्रदान कर दी थी और पूरी दुनिया को यह जता दिया था कि भारत एक सुविचारित ढंग से आजादी के बाद स्वयं को संचालित करेगा.
तकरीबन प्रत्येक राष्ट्र अपनी आजादी के बाद अपना संविधान निर्मित करता है, लेकिन भारत एक विलक्षण उदाहरण है, जिसने अपने संविधान की संरचना स्वतंत्रता के पहले ही आरंभ कर दी थी. इस लिहाज से हम एक बेहद परिपक्व राष्ट्र के रूप में स्वतंत्र हुए थे, लेकिन धीरे-धीरे हम पर अपरिपक्वता हावी होती जा रही है. इतना ही नहीं बढ़ती असमानता अब चिंता नहीं संकट का कारण बन रही है. न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने ई.वी. रोयप्पा बनाम तमिलनाडु (ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 555) के मामले में संविधान के अनुच्छेद - 14 में निहित समानता के अधिकार को लेकर कहा था, ‘समानता एक गतिशील संकल्पना है, जिसके कई पहलू तथा आयाम हैं और इसे पारंपरिक सीमाओं के भीतर बंद, ठूंसा और सीमित नहीं किया जा सकता. प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण से, समानता - निरंकुशता के प्रतिकूल है.
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वास्तव में समानता और निरंकुशता एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं. एक का संबंध किसी गणराज्य में विधि के शासन से होता है, जबकि दूसरे का संबंध निरंकुश राज्य की सनक तथा मनमानेपन से होता है.’ हम देख रहे है कि भारत में असमानता में लगातार वृद्धि हो रही है. इसकी पुष्टि दो विरोधाभासी वैश्विक संगठन कर रहे हैं. गैरसरकारी संगठन ऑक्सलेन की रिपोर्ट बता रही है कि पिछले वर्ष में असमानता में करीब 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई. जबकि विश्व आर्थिक फोरम की रिपोर्ट बता रही है कि समावेशी विकास की संकल्पना में हम बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान तक से काफी पीछे हैं और पिछले एक वर्ष में यह खाई और अधिक चैड़ी हो गई है. इसीलिए इस बार का गणतंत्र दिवस भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमें दिशाहीनता से छुटकारा पाकर संविधान की वांछित भावना के अनुरूप कार्य करने को प्रवृत्त होना होगा.
गांधी कहते थे, ‘कोई यह सोचने की गलती न करे कि रामराज्य का अर्थ हिन्दुओं का राज्य है. मेरा राम खुदा या गॉड का दूसरा नाम है. मैं खुदाई का राज चाहता हूं, जो पृथ्वी पर ईश्वरीय राज्य जैसा ही है. ऐसे राज्य की स्थापना का अर्थ केवल भारतीय जनसमुदाय का कल्याण ही नहीं बल्कि समूचे विश्व का कल्याण है.’
आज की परिस्थितियां भारतीय गणतंत्र के लिए चुनौती बनती जा रहीं हैं. ध्रुवीकरण की सीमाएं अब स्वयं को विस्तारित कर रहीं हैं. भारत को एक बार पुनः नए समाधान खोजने ही होंगे और वह अतीत में ऐसा कर भी चुका है. डॉ. बी.डी. शर्मा की पुस्तक का शीर्षक है, ‘टूटे वायदों का अनटूटा इतिहास’ क्या हम इसे बदल पाएंगे?
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)