हम भीड़ क्‍यों हो जाना चाहते हैं?
Advertisement

हम भीड़ क्‍यों हो जाना चाहते हैं?

जी हां, हम भीड़ होना चाहते हैं, लेकिन हत्‍या करने में, नुकसान पहुंचाने में फिर चाहे वह इंसान हो या प्रकृति. हम प्राकृतिक वातावरण की चाह में सुरम्‍य पर्यटन स्‍थलों पर जाना चाहते हैं, लेकिन अपने घर-आंगन में एक पेड़ नहीं रहने देना चाहते. 

हम भीड़ क्‍यों हो जाना चाहते हैं?

खबर आई कि नैनीताल में पर्यटकों की संख्‍या इतनी अधिक हो गई कि पुलिस को हाउसफुल का बोर्ड लगाना पड़ा, लेकिन फिर भी ‘प्रकृति प्रेमी’ लोग माने नहीं. वे सड़क पर वाहनों का जाम लगाए खड़े रहे. जिद ही थी कि किसी हाल बस नैनीताल जाना है. इसके पहले, शिमला में स्‍थानीय निवासियों ने जल संकट को देखते हुए पर्यटकों से कहना शुरू कर दिया था कि वे शिमला न आएं. ऐसी स्थितियों को देखते हुए निदा फाजली साहब का यह शेर याद आ रहा है- ‘हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी/फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी. हर तरफ़ भागते दौडते रास्ते/हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी.’ इन पंक्तियों में कुछ तब्‍दीली कर कहना चाहिए- ‘हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी/ हर तरफ आदमी की शिकार प्रकृति.’ 

जी हां, हम भीड़ होना चाहते हैं, लेकिन हत्‍या करने में, नुकसान पहुंचाने में फिर चाहे वह इंसान हो या प्रकृति. हम प्राकृतिक वातावरण की चाह में सुरम्‍य पर्यटन स्‍थलों पर जाना चाहते हैं, लेकिन अपने घर-आंगन में एक पेड़ नहीं रहने देना चाहते. हमारी आंखें हरियाली देखना चाहती है, मगर हमारी चिंता का सबब जेब की ‘हरियाली’ होती है और उसके लिए हर वो काम कर देते हैं जो प्रकृति के लिए ठीक नहीं है. फिर चाहे पॉलीथीन और कीटनाशकों का बेतहाशा उपयोग हो, पानी, बिजली और एयरकंडीशनर की फिजूलखर्ची हो.. हम बिगाड़ने वाली भीड़ का हिस्‍सा बन रहे हैं और अच्‍छे काम करने वाले इक्‍का-दुक्‍का प्रयासों को नजीर बताकर प्रसन्‍न हो जाते हैं. क्‍यों हम प्रकृति, धरती, पानी, हवा बचाने के जतन कर रहे लोगों के समर्थन में भीड़ का हिस्‍सा नहीं बन रहे?

शिमला से लौटे कुछ मित्र बताते हैं कि सैलानियों से गुलजार रहने वाले शिमला के अधिकांश हिस्‍सों में पानी के टैंकर के सामने बर्तन लिए लोगों की लंबी-लंबी कतारें आम बात हो गई है. जिन इलाकों में टैंकर जाने की सुविधा नहीं है, वहां लोग दूर से पानी ढोते हुए दिख रहे हैं. विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं, धरना हो रहा है. ऐसे में उन्‍हें मध्‍यप्रदेश के मालवा, बुंदेलखंड के दृश्‍य याद आए, जहां जलसंकट स्‍थाई भाव हो गया है.

ये भी पढ़ें- तरक्‍की के झांझ-मंजीरे बाद में, पहले बीमार शिक्षा की फिक्र कर लें

गर्मियों में शिमला में जल संकट नई बात नहीं है. पर इस बार पूरी व्यवस्था ही चरमरा गई है. जब गर्मियों के दिनों में पर्यटन मौसम होने के कारण शिमला की आबादी हर साल बढ़ जाती है, वहां इस बार मांग की तुलना में आधा पानी भी न मिला. शिमला में आमतौर पर प्रतिदिन पानी की जरूरत 4 करोड़ 20 लाख लीटर होती है पर बीते दिनों वहां आधे पानी यानि करीब 2 करोड़ 20 लाख लीटर प्रतिदिन की ही आपूर्ति की गई.

कमोबेश यह स्थिति जल संकट भोग रहे देश के हर गांव, कस्‍बे और शहर की है. हर जगह इस संकट का कारण भी बड़ा आम है. जैसे बीते मौसम में कम बारिश हुई. जलस्रोत भर नहीं पाए. जलस्रोतों खत्‍म हो गए. पानी के लिए पूरी तरह सरकारी वितरण व्‍यवस्‍था पर निर्भर हो गए. अपने कुंए, बावडि़यों में हमने खुद मिट्टी डाल दी और जो नलकूप हैं, उससे पानी लेने में ही रूचि है. उसे रिचार्ज करने का इरादा कभी किया ही नहीं. आदि, आदि.

हमने अपने पर्यटन स्‍थलों को सिर्फ सैरगाह और मौज-मस्ती का अड्डा समझा. मुनाफे की चांदी तो काटी, लेकिन उसकी सेहत पर कभी ध्‍यान नहीं दिया. ठीक ऐसा ही अपने शहर, मोहल्‍ले और घर के साथ किया. घर के बाहर पेड़ मंजूर नहीं. मोहल्‍ले में सफाई में कोई योगदान नहीं और शहर की हवा-पानी की हमें फिक्र नहीं. शिमला जैसे कई शहरों में पानी व्‍यवस्‍था काफी हद तक अंग्रेजों द्वारा तैयार की गई योजना पर ही निर्भर है. अंग्रेजों के जमाने में तो जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए कई तरह की पाबंदियां लगाई गई थीं. यह सुनिश्चित किया जाता था कि जलग्रहण क्षेत्र में मानवीय गतिविधियां न हों. पर अब जंगलों के बीच रहने का सुख उठाने के लिए हम उसी हरियाली को उजाड़ रहे हैं. सीमेंट-कंक्रीट के ढांचे उगा रहे हैं. पेड़ काट रहे हैं. जलस्रोतों के कैचमेंट एरिया को खत्‍म कर रहे हैं. नदियों में पानी लाने वाली सहायक नदियों को खत्‍म कर रहे और जब प्रकृति का तालमेल गड़बड़ा रहा है तो इसका सारा दोष सिर्फ मौसम पर डाल रहे हैं.

ये भी पढ़ें- मिशन 2018 और आदिवासी राजनीति की नई करवट

मौजूदा जल संकट तो इसका एक संकेत भर है. हम न सुधरे तो आने वाले साल बहुत भयावह होने वाले हैं. अभी भी मौका है. बारिश आने को है. यदि हमने रेन वॉटर हार्वेस्टिंग को अपनाकर बारिश के पानी को वसुंधरा के गर्भ में पहुंचा दिया तो संभव है आने वाली पीढ़ियों को हम हरी-भरी परिवेश दे पाएं. इसके लाभ को यूं समझा जा सकता है कि भारत के हिस्से में दुनिया का 5 प्रतिशत पानी आता है. परन्तु हम लगभग 13 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वर्षाजल संचय के मामले में दूसरे देशों से हम काफी पीछे हैं. वर्षाजल संग्रहण क्षमता में ऑस्ट्रेलिया, चीन, मोरक्को, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन और संयुक्त राज्य अमरीका जैसे देश हमसे कहीं आगे हैं. 

यह भी पढ़ेंः हम ऐसी खोखली बहादुरी के गीत कब तक गाते रहेंगे?

भारत को मिलने वाले कुल पानी का प्रतिवर्ष लगभग 60 प्रतिशत ही उपयोग हो पाता है. बाकी बचा हुआ पानी नदियों और सागरों में मिल जाता है. एक अनुमान के अनुसार, देश में पानी की वास्तविक खपत 690 अरब घनमीटर सतही पानी तथा 432 अरब घनमीटर भूजल का उपयोग किया जाता है. इस प्रकार भारत दुनिया का सबसे बड़ा जल उपभोक्ता बन रहा है. लेने में यकीन करने वाले हमारे समाज को प्रकृति की झोली भरने के भी जतन करना शुरू कर देने चाहिए. मौका अभी ही है.

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं) 
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news