राजद्रोह अंग्रेजों के दमन का औजार था, इसे राष्ट्रद्रोह समझने की भूल न करें...
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राजद्रोह अंग्रेजों के दमन का औजार था, इसे राष्ट्रद्रोह समझने की भूल न करें...

सर्वप्रथम तो भारतवर्ष की ऐतिहासिक संस्कृति में राजा या राज्य की गलत नीतियों की निंदा करना कभी भी राजद्रोह नहीं माना गया है.

राजद्रोह अंग्रेजों के दमन का औजार था, इसे राष्ट्रद्रोह समझने की भूल न करें...

पिछले हफ्ते अखिल भारतीय कांग्रेस ने अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी किया जिसमें अनेक कानूनी सुधारों की बात की गई, उसी में एक बिंदु था भारतीय दंड संहिता की धारा 124a यानी राजद्रोह को हटाना. कई लोगों ने कानून की परिभाषा ही बदलते हुए इसे राजद्रोह से देशद्रोह बना दिया. इसी अर्धज्ञान और अर्धसत्य के बवंडर के बीच धारा 124a के इतिहास और 21वीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में इसकी प्रासंगिकता को समझना काम का होगा.

सर्वप्रथम तो भारतवर्ष की ऐतिहासिक संस्कृति में राजा या राज्य की गलत नीतियों की निंदा करना कभी भी राजद्रोह नहीं माना गया है. सर्वस्वीकार्य चाणक्य नीति जो करीब 2000 वर्ष पूर्व लिखी गई थी, उसमें अनेक छंद मिलते हैं जो प्रजा से अकुशल व असमर्थ राजा का न सिर्फ विरोध, बल्कि राजगद्दी से हटा देने की शिक्षा देते हैं. राजद्रोह का कानून पाश्चात्य संस्कृति की देन है और भारत में इसकी उत्पत्ति अंग्रेजी राज की स्थापना के बाद ही हुई. पाश्चात्य संस्कृति और खासकर के इंग्लैंड में मत था कि राजशाही को ईश्वर द्वारा दैवीय अधिकार या Divine Rights प्राप्त हैं, अतः राजा पृथ्वी पर ईश्वर का अंश है और उसका विरोध व निंदा करना ईश्वर की अवमानना होगी. हालांकि भारत में इस विचार का अभाव था, परन्तु समूचे ब्रिटिश साम्राज्य में सामान कानून लाने के नाम पर व अनेक भारतवासियों को अधीन बनाने के लिए इस कानून की संरचना की गई.

भारत में सबसे पहले मैकाले ने 1837 में अपनी दंड संहिता में भारतीयों के लिए राजद्रोह का कानून प्रस्तावित करा और सजा रखी आजीवन कारावास, जबकि खुद इंग्लैंड में राजद्रोह के लिए सजा मात्र 3 वर्ष थी. गौरतलब है कि शुरुआत में अंग्रेजी शासकों ने भी इस कानून को अत्यधिक कठोर मानते हुए लागू करने से मना कर दिया था; 1860 में जब पूरे भारत में IPC लागू की गई तो उसमें राजद्रोह जैसा कोई अपराध ही नहीं था, परन्तु आजादी के लिए सतत उठती हुई मांग को कुचलने के लिए व क्रांतिकारियों को प्रताड़ित करने के लिए एक दशक बाद अंग्रेजी हुकूमत के नुमाइंदों ने  स्पेशल एक्ट XVII, 1870 द्वारा इसे IPC में धारा 124a के तौर पर जोड़ा. 124a के अनुसार "कोई भी व्यक्ति भारत की सरकार के विरोध में सार्वजनिक रूप से ऐसी किसी गतिविधि को अंजाम देता है, जिससे देश के सामने सुरक्षा का संकट पैदा हो सकता है तो उसे उम्रकैद तक की सजा दी जा सकती है. इन गतिविधियों का समर्थन करने या प्रचार-प्रसार करने पर भी किसी को राजद्रोह का आरोपी मान लिया जाएगा." यह प्रावधान इतने अस्पष्ट और विस्तृत बनाए गए कि इनकी आड़ में किसी भी व्यक्ति को राजद्रोही बनाया जा सके. आजादी के पहले से अब तक इसी कानून का इस्तेमाल करके अनेक आंदोलनकारियों, विपक्षी नेता, पत्रकार, छात्र, अध्यापक आदि को गिरफतार किया जा चूका है. जैसे 1908 में बाल गंगाधर तिलक को अपने लेख "देश का दुर्भाग्य" में नीतियों की निंदा करने के लिए राजद्रोही ठहराया गया व 6 साल की सजा सुनाई गई. भगत सिंह, महात्मा गांधी, एनी बेसेंट जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को भी इसी कानून के नाम पर अनेक बार प्रताड़ित किया गया.

खत्म करने की मांग पहले भी उठ चुकी है
पंडित नेहरू का मत था कि राजद्रोह, अंग्रेजी हुकूमत और उपनिवेशवाद का प्रतीक है जिससे अनेक भारतीयों की अभिव्यक्ति की आजादी का दमन हुआ है, अतः आजाद भारत में इसका कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए और शायद यही कारण था कि संविधान सभा ने राजद्रोह को भारतीय संविधान में सम्मिलित करने से इंकार कर दिया. संविधान सभा में बोलते हुए एम अयंगर का कहना था, "सरकार की आलोचना व अहिंसात्मक ढंग से उसे बदल देना, प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है." सन 1950 में तारा सिंह गोपी चंद बनाम सरकार में फैसला सुनाते हुए पंजाब उच्च न्यायालय ने धारा 124a को यह कहकर असंवैधानिक घोषित कर दिया था कि यह संविधान के अंतर्गत मिले हुए मौलिक अधिकारों का हनन करती है व उसकी मूल भावना के प्रतिकूल है. 1951 में संवैधानिक संशोधन करके 124a की वैधता को खत्म करने के बजाय उसे सीमित करने का निर्णय लिया गया व अनुच्छेद 19(1) में "युक्तियुक्त निर्बर्द्धन जहां कोई विधमान विधि अधिरोपित करती है" (reasonable restrictions) जोड़ा गया ताकि कोई भी सरकार इसका दुरुपयोग न कर सके. 

1962 में शीर्ष न्यायालय ने केदारनाथ सिंह बनाम सरकार में ये भी स्पष्ट कर दिया था कि महज चुनी हुई सरकार की निंदा करना राजद्रोह नहीं, राजद्रोह के लिए आवश्यक है कि हिंसात्मक गतिविधि हों. 1971 में 42वें लॉ कमीशन की रिपोर्ट में सिफारिश की गई कि राजद्रोह का मामला चलाने के लिए आपराधिक मनःस्थिति (Mens Rea) होना आवश्यक है. बलवंत सिंह बनाम सरकार में पंजाब उच्च न्यायालय ने इसी को परिभाषित करते हुए माना कि खालिस्तान परस्त नारे बिना किसी हिंसा के राजद्रोह के श्रेणी में नहीं आते हैं. इसके बावजूद अरुंधति रॉय को किताब लिखने के लिए, डॉ. उदयकुमार को परमाणु रेडिएशन से फैलने वाले खतरे के प्रति जागरुकता फैलाने के लिए, असीम त्रिवेदी को कार्टून बनाने के लिए यहां तक कि तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली को उनके ब्लॉग के लिए राजद्रोह का आरोपी बनाया जा चुका है.

खत्म करने की ज़रूरत क्यों?
लोकतंत्र में सबसे बड़ा अधिकार है असहमति का, प्रत्येक नागरिक बेखौफ होकर सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर सके व अपनी असहमति की अभिव्यक्ति कर सके, ये संविधान की मूलभावना का अभिन्न अंग है. ये इसलिए भी आवश्यक है ताकि लोकतंत्र में बहुसंख्यक मत के साथ साथ अल्पसंख्यक मत की भी सुनवाई हो. परन्तु पिछले कई दशकों से देखा गया है कि सरकार ने अपने से अलग मत रखने वालों को और खासकर विपक्षी नेताओ, पत्रकारों व संस्थाओं को शांत करवाने के लिए 124a का सहारा लिया है. उदाहरणतः 2007 में OTV के रिपोर्टर को सिर्फ इसीलिए राजद्रोह का आरोपी बनाया गया, क्योंकि उन्होंने अपनी रिपोर्ट में छापा था कि भुखमरी के कारण नुआपाड़ा जिले में पहरिया आदिवासी पत्थर खाने को मजबूर हैं, कुछ इसी प्रकार से कर्नाटक में वेतन बढ़ोतरी को लेकर प्रदर्शन कर रहे कर्मचारियों पर भी 124a लाद दी गई. अतः राजद्रोह की परिभाषा इतनी विस्तृत और अस्पष्ट कर दी गई कि उसमें किसी भी नागरिक को सरकार अपनी सुविधा के अनुसार राजद्रोही घोषित कर, प्रताड़ित सकती है और शायद यही कारण है की कोई भी सरकार इसको हटाना नहीं चाहती.

दूसरी बात यह कि 124a पुलिस को भी असीमित और अनावश्यक अधिकार देती है, और ज्ञान के अभाव के कारण इसका दुरुपयोग भी काफी होता है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2014 से 2016 के बीच दर्ज हुए राजद्रोह के 135 मामलों में केवल 2 में ही आरोप सिद्ध हुआ. गौरतलब है कि 70% मामलों में तो पुलिस चार्जशीट ही दाखिल नहीं करती. अनेक मामले ऐसे होते हैं जिसमे आरोपी व्यक्ति सालों कोर्ट के चक्कर काटने के बाद निर्दोष साबित होता है, इससे न सिर्फ न्यायिक व्यवस्था पर बोझ बढ़ता है बल्कि वह व्यक्ति भी प्रताड़ित होता रहता है. तीसरा जब देश में धार्मिक उन्माद, शांति व्यवस्था बिगाड़ने, व सामाजिक द्वेष से निपटने के लिए पहले से ही कानूनी धाराएं मौजूद हैं व सजा का प्रावधान है तो 124a का अलग से रहना कोई मतलब का नहीं रह जाता. यही नहीं देश के खिलाफ साजिश रचने वालों से निपटने के लिए पहले से ही सरकार रासुका, टाडा, पोटा आदि जैसे कानून बनाकर लागू कर चुकी है, अतः 124a का अलग से रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता. 

चौथी सबसे बड़ी बात यह कि भारत में राजद्रोह का कानून लाने वाली अंग्रेजी हुकूमत तक ने 2009 में ब्रिटेन में राजद्रोह को यह कहकर समाप्त कर दिया है कि इस प्रकार के दमनकारी कानून की आज के लोकतांत्रिक समाज में कोई जगह नहीं है. 

ऐसे में सवाल उठता है कि उपनिवेशवाद के प्रतीक बन चुके इस कानून को भारत की सरकार व राजनैतिक दल कब तक और क्यों बनाए रखना चाहते हैं?

(लेखक लंदन यूनिवर्सिटी में कानून के छात्र हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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