गुजरात चुनाव के बाद आगे क्या?
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गुजरात चुनाव के बाद आगे क्या?

चाहे आईआईटी हों और चाहे आईआईएम या दूसरे सैकड़ों प्रौद्योगिकी संस्थान, क्या इन सबका एक ही काम नहीं है कि विश्वविद्यालयों में सृजित ज्ञान का औद्योगिक इस्तेमाल करने के तरीके ढूंढें.

गुजरात चुनाव के बाद आगे क्या?

गुजरात चुनाव निपटा ही समझिए. उसके बाद देश में क्या काम चलेगा. या तो मप्र, राजस्थान, कर्नाटक के चुनावों की तैयारियां होने लगेंगी या देश की समस्याओं पर चिंता चिंतन होंगे. जिस तरह के हालात हैं उन्हें देखकर तो यही लगता है कि सरकार को देश की अर्थव्यवस्था पर ही ध्यान लगाना पड़ेगा. यही एक मामला है जो 2019 के चुनाव के लिहाज से सबसे जरूरी माना जा सकता है. राजनीतिक विपक्ष भी देश की माली हालत पर सबसे ज्यादा बोलता दिखेगा. राजनीति विज्ञान भी मानता है कि किसी देश में लगभग सभी स्थितियां चाहे राजनीतिक हों, सामाजिक हों या वैधानिक, वे अर्थतंत्र पर निर्भर रहती हैं. यहां तक कि सामाजिक और लैंगिक भेदभाव की मौजूदा समस्या का कारण भी घूम फिरकर देश में आर्थिक विषमता को भी माना जाने लगा है. खासतौर पर आरक्षण की जटिलताएं तो हैं ही इस कारण से कि हमारे पास इतने संसाधन नहीं हैं कि सबके लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य को सुनिश्चित कर सकें. इस तरह कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि आने वाले दिनों में जनता के, सरकार या विपक्ष के और मीडिया के ईमानदार तबके के सरोकार क्या होंगे. क्यों न वक्त रहते इसकी बात शुरू कर ली जाए.

क्या क्या समझ गए हैं हम अब तक
हम समझ गए हैं कि 135 करोड़ आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए संसाधन कम पड़ गए हैं. कोई ऐसा तरीका भी निकल नहीं पा रहा है कि पांच-दस साल में हालात काबू में कर लें. यहां तक कि जीवन की सबसे पहली जरूरत पर्याप्त पानी तक के इंतजाम को लेकर भी हम चिंतित हैं. यहां ईमानदारी बेईमानी की बात ही नहीं है. विशेषज्ञ बता रहे हैं कि प्रकृति से अधिकतम जितना पानी हमें आवंटित है वही पूरा नहीं पड़ रहा है. अनाज के उत्पादन के लिए सिंचाई की व्यवस्था के लिए कोई भी ऐसी योजना हमारे बस्ते में नहीं है जो निकट भविष्य में पानी को लेकर आश्वस्त करती हो. सो हमारे पास इसके अलावा चारा ही क्या बचता है कि सारा जोर हुनरमंद प्रबंधन पर लगा दें. सिर्फ पानी को लेकर ही नहीं बल्कि दूसरी उन तमाम समस्याओं के लिए भी जो किसी न किसी तरह संसाधन के अभाव के कारण हैं. वह चाहे बेरोजगारी हो या आरक्षण हो या फिर देश में सकल घरेलू उत्पाद हो या बैंकों के बढ़ते एनपीए की समस्या हो या किसानों की घटती आमदनी हो, सबकी जड़ आर्थिक प्रबंधन में दिखने लगती है. हमें यह भी समझ में आ गया है कि गैर-वैज्ञानिक ढंग से अगर एक समस्या के समाधान में लगते हैं तो उससे दो और समस्याएं खड़ी हो जाती हैं.

कहीं भूल तो नहीं रहे हैं वैज्ञानिक उपाय
क्या कारण है कि उद्योग व्यापार जगत अपनी बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान फौरन कर लेता है. इसका जवाब है कि उसके पास अपनी समस्या के निदान और उपचार के लिए आधुनिक प्रबंधन प्रौद्योगिकी उपलब्ध है. क्या देश की राजनीतिक व्यवस्था भी उस ज्ञान विज्ञान से नहीं सीख सकती? लेकिन कुछ भी जानने के लिए मानना पड़ता है कि हम उतना नहीं जानते जितना उस विषय का जानकार जानता है. वैसे देश की मौजूदा सरकार सत्ता में आने के पहले यह बात मानती थी और यह कहते हुए उसने देश के लोगों को अपना कायल बनाया था कि देश के नियोजन में विभिन्न क्षेत्रों के प्रशिक्षित युवा प्रौद्योगिकविदों को लगाया जाएगा. लेकिन लगता है सरकार वह भूल गई. युवा इसलिए क्योंकि वे ही नवीनतम प्रौद्योगिकी से लैस होते हैं.
 
क्या कर रहे हैं प्रौद्योगिकी संस्थान
चाहे आईआईटी हों और चाहे आईआईएम या दूसरे सैकड़ों प्रौद्योगिकी संस्थान, क्या इन सबका एक ही काम नहीं है कि विश्वविद्यालयों में सृजित ज्ञान का औद्योगिक इस्तेमाल करने के तरीके ढूंढें. शब्दकोषों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मायने साफ साफ लिखकर रखे गए हैं. यानी प्रौद्योगिकी के जिम्मे यह काम है कि वह उपलब्ध ज्ञान के इस्तेमाल में लगेगा. लेकिन अफसोस की बात है कि संसाधनों के हुनरमंद प्रबंधन के सुझाव या पाठ वहां से आते नहीं दिखते. सरकार के अपने थिंक टैंक में युवा प्रोफेशनल टेक्नोलॉजिस्ट की भागीदारी का स्तर शून्य से ऊपर नहीं आ पाया है. वैसे यह बात नई नहीं है. यह बात पिछले आम चुनाव के प्रचार के समय बड़ी शिद्दत से कही गई थी. उसे सुनकर लगता था कि हम बेरोजगारी और जलसंकट जैसी समस्याओं से पार पा लेंगे और उद्योग और कृषि के बीच लाभ के भारी फर्क को मिटाने का कोई फॉर्मूला निकाल लाएंगे. लेकिन अपने भीमकाय सूचनातंत्र में ऐसी कोई सूचना जानने को नहीं मिल रही है कि अपनी मौजूदा समस्याओं के समाधान के लिए इन प्रौद्योगिकी संस्थानों से क्या मदद मांगी जा रही है. हो सकता है कि मांगी जा रही हो लेकिन मीडिया में ऐसी कोई जानकारी दिखनी भी तो चाहिए. सिर्फ एक तरह की बात सुनने को मिलती है कि कार्य प्रगतिे पर है. लेकिन कार्यस्थल पर वह काम होता हुआ नहीं दिखाई देता.

अभी भी समय है...
मौजूदा सरकार के भले ही साढ़े तीन साल गुजर गए. लेकिन डेढ़ अभी भी बचे हैं. अजादी के अपने 70 साल के इतिहास में छोटे-बड़े सैकड़ों चुनाव हो चुके हैं. कई बार सुन चुके हैं कि सौ दिन में ये कर देंगे छह महीने में वह कर डालेंगे. हालांकि देखा हमने यह भी है कि कई बार चुनाव के चार-चार, छह-छह महीने पहले एक से एक बड़े काम किए गए. सो मौजूदा सरकार के पास जो डेढ़ साल बचे हैं वह समय कम नहीं है. दसियों मोर्चों पर एक साथ लगने की बजाए अगर वह किसी एक मोर्चे पर अपना प्रदर्शन कर दे तो आने वाले समय में उसे बड़ी आसानी हो जाएगी. खासतौर पर बेरोजगारी से निपटने का कोई कार्यक्रम गेम चेंजर बन सकता है और आर्थिक मोर्चे पर भी चमत्कार पैदा कर सकता है.

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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