नई दिल्ली: अगर महाराष्ट्र में सियासी बगावत की कहानी में एकनाथ शिंदे के रोल का जिक्र किया जाए, तो भले ही उन्होंने इस वक्त अपना ये रुख अख्तियार किया हो मगर इसकी स्क्रिप्ट 2019 में ही लिख दी गई थी. आपको पूरी कहानी शुरुआत से समझाते हैं. क्योंकि एकनाथ शिंदे को अभी से पहले तक सिर्फ महाराष्ट्र की जनता जानती थी, लेकिन अब पूरे देश में उनके फैसलों पर बहस हो रही है. हो भी क्यों न राजनीतिक दिग्गजों का कहना है कि एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे के नीचे से उनकी सियासी जमीन खींच ली है.
कहानी को शुरुआत से समझिए..
ये बात है साल 2019 की, जब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए. सत्ता की स्वाद चखने की लालच में शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया था. सरकार बनने और गिरने का दौर चल रहा था. फडणवीस ने शपथ तो ले ली थी, शरद पवार के भतीजे अजित पवार भी उस सरकार में उपमुख्यमंत्री बने थे. लेकिन कुछ घंटों बाद ही वक्त की सुई बदल गई और सरकार गिर गई.
अब शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के बीच एक करार हो गया. इस करार के बाद फैसला हुआ कि मुख्यमंत्री शिवसेना का ही बनेगा. एकनाथ शिंदे के बारे कहा जाता है कि वो ठाकरे परिवार के बाहर सबसे मजबूत ताकतवर शिवसैनिक हैं. उनके दिल का एक दर्द दबा रह गया, जो अब जाकर बाहर आया है.
अगर उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बनने के लिए राजी नहीं हुए होते तो शायद एकनाथ शिंदे आज उसी कुर्सी पर होते. लगभग 59 साल के शिंदे महाराष्ट्र सरकार में नगर विकास मंत्री हैं. उनकी इमेज एक कट्टर और वफादार शिव सैनिक की रही है, कुछ साल पहले तक अगर किसी शिवसैनिकों को पार्टी में अपनी बात रखनी होती थी, तो सबसे पहले शिवसैनिक एकनाथ शिंदे की ओर देखते थे.
2019 से शुरू होती है बगावत की कहानी
जब ये तय हो गया था कि शिवसेना का ही कोई चेहरा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेगा, तो महाराष्ट्र में इस तरह के पोस्टर शहर-शहर, गांव-गांव नजर आने लगे थे. मुख्यमंत्री के नाम पर सिर्फ और सिर्फ एकनाथ शिंदे का नाम उछाला जा रहा था, क्योंकि उद्धव ठाकरे ने सामना में लिखा था कि एक शिवसैनिक ही महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनेगा. लेकिन इसके आगे विधायक दल की कोई बैठक होती. विधायकों से कोई सवाल-जवाब होता. मातोश्री से शिवसैनिकों के लिए एक चिट्टी बाहर आई, जिसमें उद्धव ठाकरे का नाम लिखा था. इसके बाद इस नाम पर किसी के ना कहने की हिम्मत नहीं हुई.
एकनाथ शिंदे क्यों हुए 'बागी'?
उद्धव ठाकरे के सीएम बनने के बाद एकनाथ शिंद की मुख्यमंत्री बनने की चाहत आसमान से पाताल पहुंच गई थी. संजय राउत के बढ़ते कद से पार्टी में किनारे होते जा रहे थे. पार्टी के अहम फ़ैसलों से दूर रखा जाता था. हाल ही में हुए राज्यसभा और MLC चुनाव में भी कोई जिम्मेदारी नहीं मिली.
तमाम विरोधाभासों और महत्त्वाकांक्षाओं के बावजूद एकनाथ शिंदे और उद्धव साथ-साथ चलते रहे. इसकी वजह सिर्फ ये थी कि शिंदे सही समय का इंतजार कर रहे थे और राज्यसभा और MLC चुनाव में जैसे ही क्रॉस वोटिंग हुई. एकनाथ शिंदे को मौका मिल गया. उन्हें पता चल गया था कि वो अकेले शिवसेना में नाराज नहीं है.
उद्धव ठाकरे के पार्टी संभालने के बाद ये सबसे बड़ी बगावत है. एकनाथ शिंद ने हथियार डालने से इनकार कर दिया है. और ये कह दिया कि 'हम बाला साहेब के सच्चे शिवसैनिक हैं. बाला साहेब ने हमें हिंदुत्व सिखाया है. हम सत्ता के लिए कभी भी धोखा नहीं देंगे. बाला साहेब के विचारों और धर्मवीर आनंद साहेब ने हमें धोखा देना नहीं सिखाया है.'
शिंदे को इस बात का सबसे ज्यादा मलाल
एकनाथ शिंदे के फैसले के बाद महाराष्ट्र की राजनीति अब नया आकार लेने वाली है. जब तक महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना की मुट्ठी में सरकार थी, तब एकनाथ शिंदे का कद कैबिनेट में भी ऊंचा था और पार्टी में भी... लेकिन महाअघाड़ी सरकार बनने के बाद पद और सियासी कद दोनों बहुत छोटा हो गया.
बता दें, एकनाथ शिंदे साल 1980 में शिवसेना से शाखा प्रमुख के तौर पर जुड़े थे. शिंदे ठाणे की कोपरी-पांचपखाड़ी सीट से 4 बार विधायक चुने जा चुके हैं. महाराष्ट्र सदन में विपक्ष के नेता भी रहे और कैबिनेट का पद भी मिला.
शिंदे को उद्धव ठाकरे सरकार में मंत्री तो बना दिया गया लेकिन वो उस अरमान को नहीं भुला पाए जो उन्होंने पाले थे. सीएम पोस्ट मुंह के करीब आकर फिसल गया था. पिछले 2 साल से हमेशा उनकी नाराजगी की खबरें निकलकर सामने आ रही थीं.
एकनाथ शिंदे किसी मौके की ताक में थे और उन्हें विधान परिषद चुनाव में ये मौका मिल भी गया. शिवसेना के कुछ विधायकों ने क्रॉस वोटिंग कर दी और पार्टी एक सीट पर हार गई. शिंदे के इस खेल को शिवसेना समझ भी नहीं पाई थी कि और वो 20 से ज्यादा विधायकों के साथ मुंबई से सूरत चले गए.
अब देखना ये होगा कि एकनाथ शिंदे का अगला कदम क्या होगा और महाराष्ट्र की उद्धव सरकार चलती है या गिर जाती है. सियासत में कब क्या होने वाला है ये कोई नहीं जानता है.
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