हम बच्चों के अंतर्ज्ञान , सहजबोध पर यकीन करने की जगह अपने मन की सुनने में कहीं अधिक यकीन रखते हैं. इसी वजह से बच्चों के निर्णय में घालमेल करते हैं.
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बच्चे के स्कूल में प्रवेश लेने के साथ ही उम्मीद का कारवां आसमां छूने लगता है . बच्चे की प्रतिभा को परखने के लिए इतनी तरह की चीजों ने बाजार सजा लिया है कि बच्चा हर पल अपने निर्णय बदलने लगता है .
जब तक वह कुछ समझ पाता है उसके अभिभावक उसके लिए दूसरी दिशा खोज लेते हैं . स्कूल के शिक्षक उसके भीतर कुछ और तलाशते हैं . टीवी, इंटरनेट माता-पिता को अपनी अपडेट राय देते रहते हैं. उसके बाद कुछ अधिकार तो रिश्तेदार, पड़ोसियों का भी बनता है.
ऐसा इसलिए भी होता है , क्योंकि हम बच्चों के करियर ‘डिजाइन’ करने में अपनी भूमिका निभाना चाहते हैं. हम उनके इंट्यूशन (अंतर्ज्ञान, सहजबोध) पर यकीन करने की जगह अपने मन की सुनने में कहीं अधिक यकीन रखते हैं. इसी वजह से बच्चों के निर्णय में घालमेल करते हैं.
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अभिभावक के रूप में हम अभी भी बच्चों को अपनी संपत्त्ति मानने से ऊपर नहीं उठ पाए हैं . इसलिए हम उन्हें अपने ‘ढांचे और अक्ल’ के हिसाब से ढालने की कोशिश करते हैं. हम उन्हें उनके इंट्यूशन के अनुसार चीजों को चुनने में मदद करने की जगह अपने अनुभव, ज्ञान के आधार पर रास्ता दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं. यह जानते हुए भी कि इस काम में हमारी भूमिका जुगनू जितनी भी नहीं है, हम खुद को इस भूमिका से दूर रखने का लोभ नहीं छोड़ पा रहे हैं.
‘डियर जिंदगी’ को बेंगलुरू से गौरा ठाकुर ने लिखा है कि बच्चों ने उनकी सलाह को एक कोने में रखकर इंजीनियरिंग की जगह एमबीए और स्टार्टअप को चुना. पहले तो उन्हें और उनके पति को इस बात का बहुत बुरा लगा. लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने अपने बच्चों के अंदर अपने लक्ष्य के लिए वही जज्बा देखा जो उनमें अपने प्रोफेशन के लिए था, तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ.
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गौरा खुशकिस्मत , जागरूक और संवेदनशील हैं, जो यह महसूस कर रही हैं, क्योंकि हमारे देश में ऐसे अभिभावक कहीं बड़ी संख्या में हैं जो बच्चों को गलत साबित करने में पूरी उम्र झोंक देते हैं. बच्चे सही भी साबित हों, तो उनके साथ जाने की जगह फैसलों की समीक्षा में जिंदगी को झुलसाए रखते हैं.
इसलिए यह बहुत जरूरी है कि बच्चे को वह करने दिया जाए , जिस ओर उसकी लगन है. यहां लगन और ग्लैमर के अंतर को समझना जरूरी है. मिसाल के लिए एक बच्चे की खबर, समाज और सरोकार में रुचि है. उसे लिखने, पढ़ने और स्वयं को अभिव्यक्त करने की चाहत है तो मीडिया उसके लिए सही मंच है. लेकिन जिसे टीवी एंकर को देखकर टीवी पर आने की चाहत भर हो उसके लिए यह ग्लैमर से लिया गया फैसला होगा.
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अभिभावक की भूमिका बस इतनी होनी चाहिए कि वह लगन और ग्लैमर के अंतर को दूर कर सके . माता-पिता जो हैं, जैसे हैं, इस आधार पर बच्चों का रास्ता नहीं चुना जाना चाहिए. उन्हें अपनी पगडंडी चुनने का मौलिक अधिकार मिलना ही चाहिए.
मशहूर फिल्म निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग जिन्हें हम 'जुरासिक पार्क' के लिए याद करते हैं, अपने भाषण में अक्सर एक मजेदार बात का जिक्र करते हैं. वह कहते हैं, ‘कॉलेज खत्म करने में मुझे 37 बरस लग गए. जब आप अपने सपनों के पीछे पागल, उम्मीद से भरे होते हैं, तो ऐसा आपके साथ भी हो सकता है.’
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असल में स्पीलबर्ग जैसे ही कॉलेज पहुंचे उनको एक स्टूडियो में उनका पसंदीदा काम मिल गया . उस समय उन्होंने अपने माता-पिता से वादा किया कि अगर उनका फिल्मी करियर ठीक नहीं रहा तो वह अपनी पढ़ाई पूरी करने कॉलेज लौटेंगे. स्पीलबर्ग को सिनेमा से जो मिला, उसके बारे में अब कुछ भी कहने की जरूरत नहीं. लेकिन उसके बाद भी पचास बरस का होने के बाद उन्होंने कॉलेज की डिग्री हासिल की, क्योंकि वह अपने अभिभावकों से किया वादा पूरा करना चाहते थे.
स्पीलबर्ग कहते हैं, ‘आपका अंतर्ज्ञान, आपकी अंतरात्मा से अलग है. अंतरात्मा कहती है, तुम्हें यह काम करना चाहिए. जबकि इंट्यूशन कहता है, ये वह काम है, तो तुम कर सकते हो. आपको उस आवाज को सुनना है, जो कहती है कि आप यह कर सकते हो.’
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आइए , खुद से एक वादा करें. बच्चों को अपना समझा रास्ता बताने की जगह उस पगडंडी पर चलने में मदद करेंगे, जिसे उनकी सहज बुद्धि चुनने की सलाह दे रही हो!
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