डियर जिंदगी : हम किसके सपने जी रहे हैं...
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डियर जिंदगी : हम किसके सपने जी रहे हैं...

बच्‍चों की बात होते ही हम अपनी अतृप्त इच्‍छाओं की बेल उनके गले में डाल देते हैं.

रिजल्‍ट का मौसम हमेशा की तरह बच्‍चों और पैरेंट्स के लिए इस बार भी खास है. इसलिए, यह हर जगह टॉकिंग प्‍वाइंट है, बहस, उलझन का दौर है. यह चुनाव  एकदम नैसर्गिक, बिना किसी तनाव के होना चाहिए. हमने बच्‍चों के बारे में सारा विमर्श नंबर केंद्रित कर दिया है, इसलिए अब उसकी सहज प्रतिभा का मूल्‍य निरंतर कम होता जा रहा है.

एक स्‍टूडेंट, जो दिनभर कमाल की कविताएं लिखता है, उसके पास विचार हैं, लेखन की प्रतिभा है, लेकिन शानदार रिजल्‍ट के बाद उसे मजबूर किया जाता है कि वह आईआईटी के लिए कोटा जाए. भारी मन और उदास दिल से वह चला जाता है, आईआईटी के लिए चुना भी जाता है, लेकिन एक बरस बाद ही वह उब जाता है. उसके भीतर मशीनों, तकनीक के लिए जगह ही नहीं है. उसके भीतर प्राकृतिक कोमलता है. उसके अंदर मनुष्‍य के सरोकार हैं. वह मनुष्‍य के अंतर्मन के सवालों के जवाब खोजना चाहता था. इसी साल जनवरी में उसने दिल्‍ली में आत्‍महत्‍या कर ली. आत्‍मीय चिटठी में उसने पिता को लिखा 'काश! हम एक दूसरे के सपने को समझ पाते, एक ही जिंदगी हम दोनों के सपने को पूरा नहीं कर सकती.' 

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यहां कुछ बातें स्‍पष्‍ट करना जरूरी है. यह स्‍टूडेंट अपने माता-पिता के दो बच्‍चों में पहला था. पिता आईएएस अफसर हैं. परिवार पर कोई आर्थ‍िक संकट नहीं था. लेकिन पिता चाहते थे कि बेटा आईआईटी में जाए, क्‍योंकि वह कुछ नंबरों से इसे मिस कर गए थे. जबकि उनके अधिकांश दोस्‍त आईआईटी में पहुंचने में सफल हुए थे. वह साबित कर देना चाहते थे कि उनके बेटे में भारत के सर्वोत्‍तम संस्‍थान में पढ़ने की योग्‍यता है.

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यह संकट अब गहराता जा रहा है. एक मां डांसर नहीं बन सकी तो बेटी को वही बनाना चाहती है, पिता बेटे को वही बनाना चाहता है, जो वह नहीं बन पाए. हमारा मन अतृप्त इच्‍छा का कूडे़दान बन  गया है. कचरा जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, कूड़े का ढेर वैसे ही ऊंचा होता जाता है. हमारी इच्‍छाओं की अमर बेल बच्‍चों के दिल-दिमाग पर लिपटती हुई उनकी चेतना को डसने का काम कर रही है. अमरबेल अब उनकी गर्दन तक पहुंच गई है. जब समाज अपने बच्‍चों की सफलता को खुद के स्‍टेटस से जोड़ लेगा तो उसका परिणाम यही होना है.

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हमने जीवन की गुणवत्‍ता, मूल्‍यपरक जीवन शैली से मुंह मोड़ लिया है. जरा याद कीजिए... हम बच्‍चों की कोमल भावनाओं, उनकी नैतिक शिक्षा पर कितना कम काम कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि समाज बस बच्‍चों को पंख बनाकर अपनी हसरतों की उड़ान भरना चाहता है. इसलिए अब बच्‍चों, माता-पिता के बीच द्वंद्व बढ़ता ही जा रहा है. 

माता-पिता अक्‍सर इस बात की तुलना अपने पिता, दादाजी से करने लगते हैं कि उन्‍होंने जो कहा था, हमने किया. इसलिए सफल हुए. ऐसे तर्क देने वाले यह भूल जाते हैं कि तब विकल्‍प कम से कम थे. और अब विकल्‍प ही विकल्‍प हैं. पहले जंगल जाने का एक ही रास्‍ता था. अब जंगल पार करने के सौ रास्‍ते हैं, एक से एक विविध और सरल भी. तो उसी रास्ते जंगल पार करने की पारंपरिक सोच क्‍यों. और मैं तो यह भी कहूंगा कि हो सकता है कि अब जंगल पार करके शहर जाने की जरूरत ही न हो. क्‍योंकि बिना जंगल पार किए ही जीवन अपनी दिशा की ओर बढ़ रहा है, तो इसे केवल इसलिए नहीं किया जाना चाहिए क्‍योंकि यह सदियों से होता आया है. 

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हर मनुष्‍य की आंतरिक बनावट एक दूसरे से बिल्‍कुल अलग है. एक ही आम के बाग के सभी पेड़ एक ही मिटटी, हवा और पानी का सेवन करने के बाद भी अलग-अलग मिठास लिए होते हैं. हर आम के पेड़ का आम दूसरे से इतना विविध हो सकता है, जिसकी हम कल्‍पना भी नहीं कर सकते. वहां हम शिकायत करने की जगह, उसका स्‍वाद लेते हैं. आनंद लेते हैं. लेकिन बच्‍चों की बात होते ही हम अपनी अतृप्त इच्‍छाओं की बेल उनके गले में डाल देते हैं. जो किसी भी दिन उनका गला घोट सकती है. पैरेंट्स को इस बारे में अधिक से अधिक सजग रहने और बच्‍चों की मूल इच्‍छाओं को समझने की जरूरत है. ऐसी इच्‍छा जिस पर दूसरों के ग्‍लैमर की छाप न हो. जो उनके व्‍यक्‍तित्‍व के अधिक से अधिक नजदीक हो.  

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बच्‍चों की मूल इच्‍छाओं को समझने की जरूरत है. ऐसी इच्‍छा जिस पर दूसरों के ग्‍लैमर की छाप न हो. जो उनके व्‍यक्‍तित्‍व के अधिक से अधिक नजदीक हो. हमारा मन अतृप्त इच्‍छा का कूडे़दान बन गया है. यह कचरा बच्‍चों के बचपन पर भारी पड़ रहा है. पैरेंट्स को इस स्‍वच्‍छता अभियान की अंतर्यात्रा पर निकलना ही होगा, बिना इस यात्रा के समाज गहरे संकट में पड़ सकता है.

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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