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बिमल कुमार
नक्सलियों ने बीते दिनों छत्तीसगढ़ में जिस तरह कोहराम मचाया उससे पूरा देश सन्न रह गया। नक्सलियों के हौसले इस कदर बुलंद हैं कि वे सत्ता, शासन को लगातार चुनौती दे रहे हैं। गरीबों और आदिवासियों की मदद करने की आड़ में लाल आतंक का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। बेलगाम होते जा रहे इस `लाल आतंक` पर लगाम लगाना अब बेहद जरूरी हो गया है। दिन-ब-दिन नक्सली देश के सामने एक गंभीर चुनौती पेश कर रहे हैं। आज जरूरत है ऐसी व्यवस्था के निर्माण की, जिससे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नक्सलियों के `सामानांतर सरकार` के ताने-बाने को ध्वस्त किया जा सके। अर्द्धसैन्य बलों पर निरंतर हमले, दंतेवाड़ा जेल ब्रेक, सुकमा के तत्कालीन कलेक्टर एलेक्स जॉन पाल का अपहरण, फिर रिहाई और कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले कई सवालों को भी जन्म दे रहे हैं।
पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से 60 के दशक में शुरू हुआ नक्सल आंदोलन आज छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, ओडिशा समेत कुल नौ राज्यों में फैला हुआ है। लाल आतंक ने देश के 160 जिलों को अपनी चपेट ले लिया है। इन चार-पांच दशकों में नक्सलियों ने अपने नेटवर्क का खासा विस्तार कर लिया और इनके संबंध आईएसआई से होने के भी संदेह हैं। उन्हें चीन से भी मदद मिलने की बातें यदा कदा सामने आती रहती हैं। इन हालातों में यदि हम नक्सलियों को लेकर थोड़ी भी लापरवाही और बरते तो आंतरिक मोर्चे पर कई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। बीते कुछ सालों में प. बंगाल, आंध्र प्रदेश व ओड़िसा में तो नक्सली हमलों पर कुछ काबू पाया जा सका है, लेकिन छत्तीसगढ़ में यह अभी भी गंभीर चुनौती बना हुआ है।
नक्सलियों की बेजा मांगों को पूरी तरह अनसुना करना नितांत जरूरी है। प्राय: वे मांग उठाते हैं कि ऑपरेशन ग्रीन हंट तुरंत बंद किया जाए, सुरक्षाबल वापस भेज दिए जाएं, सेना की तैनाती न हो, जेलो में बंद नक्सली नेता रिहा हों, उद्योगों के लिए प्राकृतिक संशाधनों को दोहन रोका जाए आदि। हालांकि इन मांगों से यह भी संकेत मिलता है कि हाल के कुछ सालों में प्रभावित क्षेत्र में नक्सलियों की कमर टूटी है। जरूरत है तो नक्सली हिंसा पर काबू पाने की मुहिम को और तेज करने की।
नेताओं पर पहले भी नक्सली हमले होते रहे हैं, लेकिन इस बार बस्तर में इतनी बड़ी वारदात पहली बार हुई है। प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, पूर्व सांसद महेंद्र कर्मा, पूर्व विधायक उदय मुदलियार सहित कई कार्यकर्ताओं की असामयिक मौत ने दहला दिया है। बस्तर क्षेत्र में परिवर्तन यात्रा से लौट रहे कांग्रेस के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के काफिले पर नक्सलियों ने जिस सुनियोजित तरीके से हमला किया, उससे कई सवाल भी खड़े हो रहे हैं।
कुछ नेताओं ने घटना को लेकर कुछ बड़े सवाल भी उठाए हैं। कांग्रेस के नेताओं पर नक्सलियों का यह हमला ऐसे वक्त में हुआ है, जब कांग्रेस विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटी है। प्रदेश में कांग्रेस नेतृत्व का इस तरह से सफाया होने से कांग्रेसजन सदमे और दहशत में हैं। अब कांग्रेसियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि दोबारा नक्सली इलाकों में यात्रा का साहस कैसे जुटाएं।
पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा अपनी जान की परवाह किए बगैर बीते कुछ माह से बस्तर में दौरा कर रहे थे। बस्तर के जंगलों में नक्सलियों के खिलाफ सिर्फ कर्मा ने ही अभी तक दहाड़ने की हिम्मत जुटाई थी। अब इस `टाइगर` के जाने के साथ ही बस्तर से नक्सल विरोधी आंदोलन (सलमा जुडूम) की कहानी का एक बड़ा अध्याय समाप्त हो गया। चर्चित आदिवासी नेता रहे कर्मा की चर्चा भी अब इतिहास बनकर रह जाएगी। उन्होंने जीवन भर बंदूकों और हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ी, लेकिन उसी हिंसा के वह शिकार बन गए। महेंद्र कर्मा नक्सल निरोधी आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बन गए। वह उन इलाकों से गुजरने से भी नहीं डरते थे, जो लाल आतंक के लिए कुख्यात था और नक्सलियों का गढ़ माना जाता था।
कर्मा लाल आतंक के खिलाफत में लगे रहे और धीरे-धीरे नक्सलियों के सबसे बड़े दुश्मन बन गए। वर्षों से वह नक्सलियों की हिट लिस्ट में थे। बार-बार उन पर हमला होता रहा, मगर इस बार भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया। परिवार और पार्टी से ऊपर उठकर भी उन्होंने नक्सली हिंसा का विरोध किया। मरते दम तक उन्होंने लाल आतंक का भरपूर विरोध किया। लाल सेना की दहशत के आगे बस्तर में हर कोई नतमस्तक हो गया, लेकिन महेंद्र कर्मा न झुके, न दबे। निडर होकर अपनी मुहिम में जुटे रहे। अंत में नक्सलियों की गोली ने उनकी मुहिम को विराम लगा दिया।
बस्तर को लाल आतंक से मुक्ति दिलाने वाले कर्मा के जैसा कोई वन मैन आर्मी अब दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। पिछले कुछ सालों में नक्सली रक्षात्मक हो चले थे। इस बात को लेकर नक्सलवादी बौखलाए और चिंतित भी थे। इसी बौखलाहट में उन्होंने छत्तीसगढ़ में इतने बड़े हत्याकांड को अंजाम दिया। इस तरह की वारदात फिर न हो, इसके लिए समुचित तरीके से शासन को कारगर रणनीति बनानी होगी। अन्यथा नक्सली हिंसा पर लगाम टेढ़ी खीर साबित होगी। हिंसा पर काबू पाने के उपाय के साथ साथ नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कल्याणकारी योजनाएं चलाकर वहां के लोगों को बहकावे में आने से भी रोकना होगा ताकि नक्सलियों का नेटवर्क कमजोर हो सके।
हालांकि केंद्र सरकार अपने स्तर पर आदिवासी क्षेत्रों के कल्याण के लिए कई योजनाएं चला रही है। जरूरत है तो इन योजनाओं को पूर्ण रूप से जमीन पर क्रियान्वित करने की। केंद्र की ओर से कुछ समय पहले नक्सल प्रभावित तीन राज्यों में गवर्नेस एंड एक्सलरेटेड लाइवलीहुड्स सिक्योरिटी प्रोजेक्ट स्कीम (गोल्स) लागू करने का फैसला किया गया, जिसका मकसद आजीविका के अवसरों को तेजी से उपलब्ध कराने का है। इस स्कीम के जरिये नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिंसा पर लगाम लगाने का यह कारगर प्रयास होगा।
गौर करने वाली बात यह है कि कोई भी योजना तभी सफल हो सकती हैं जब उन्हें लागू करने में पूरी ईमानदारी बरती जाए। यदि कोई लापरवाही सामने आती है तो उस पर तुरंत एक्शन लिया जाए।
नक्सली हिंसा पर किसी तरह का राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप घातक साबित होगा। राजनेताओं को इस गंभीर समस्या पर संयम से काम लेना होगा। बेवजह की टिप्पणी असल मकसद की राह में बाधा ही बनेगी। नक्सलियों पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी है कि केंद्र व राज्य सरकारें एक-दूसरे का पूरा सहयोग करें। जिक्र योग्य है कि नक्सली हिंसा का सिर्फ बंदूक के बल पर समूल नाश नहीं किया जा सकता है। ऐसे में यदि बातचीत का कोई मसला सामने आता है तो उस पर गहराई से गौर किया जाना चाहिए।