हम अतीत में झांके तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को भारत में पहली सीधी चुनौती सन 1975 में अपातकाल के माध्यम से मिली थी.
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‘‘दासता का सबसे बुरा रूप ग्लानि की दासता है, क्योंकि तब लोग अपने में विश्वास खोकर निराशा की जंजीरों में जकड़ जाते हैं.’’
- रवीन्द्रनाथ टैगोर
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा भा.दं.वि. की धारा 377 को लेकर दिया गया फैसला किसी एक विशिष्ट वर्ग को ही संबोधित नहीं है और न ही सिर्फ उनकी जकड़न को खोलता है, यह फैसला इससे आगे जाकर कुछ ऐसे महत्वपूर्ण समाधान प्रस्तुत कर रहा है जो कि हमारे संकटग्रस्त लोकतंत्र के लिए संजीवनी साबित होंगे. यह तय है कि इस निर्णय ने समलैंगिकता व अन्य यौन अल्पसंख्यकों को बेहद राहत प्रदान की है, साथ ही यह अन्य (बहुसंख्यक ?) लोगों को भी आइना दिखाता है कि एक समतामूलक समाज में किस प्रकार के सामाजिक व्यवहार एवं वैचारिक आदान-प्रदान की आवश्यकता है. चूंकि यह मुकदमा धारा 377 की वैधता पर था तो जाहिर है बहस और समीक्षा का दायरा भी उसी के आसपास घूमेगा. परंतु यह निर्णय अन्य कई मायनों में भी, खासकर मूल (मौलिक) अधिकारों की प्रासंगिकता और महत्व को लेकर भी ऐतिहासिक बन पड़ा है.
हम अतीत में झांके तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को भारत में पहली सीधी चुनौती सन 1975 में अपातकाल के माध्यम से मिली थी. संविधान का 42वां संशोधन एक किस्म के संवैधानिक अधिनायकवाद की ओर देश को ले चला था. परंतु जनता पार्टी के शासन ने 1977 में संविधान में 44वें संशोधन के माध्यम से किसी भी तरह के संवैधानिक अधिनायकवाद के लागू हो पाने की प्रत्येक संभावना पर विराम लगा दिया था.
यदि हम आज इस संविधान संशोधन पर गौर करें तो समझ में आता है कि इस संशोधन ने भारतीय लोकतंत्र को नई प्राणवायु दी है, क्योंकि इसी के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया कि अब मूल अधिकारों को कभी भी स्थगित नहीं किया जा सकेगा. परंतु विचित्रता यह है कि जिन लोगों के प्रयासों से यह संशोधन आया, उनमें से कई आज ऐसा बर्ताव कर रहे हैं, जिससे कि नागरिकों के मूल अधिकारों पर संकट खड़ा हो गया है.
अतएव वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर इस निर्णय में की गई टिप्पणियों बेहद आश्वास्त कर रहीं है कि कम से कम सर्वोच्च न्यायपालिका के स्तर पर संविधान में निहित मूल अधिकारों को लेकर किसी प्रकार का असमंजस नहीं है. यह अलग विषय है कि गैरराजनीतिक उठापटक के जरिए हमारे इन अधिकारों को जबरिया हथियाने के प्रयास जोर-शोर से जारी हैं. गौरतलब है धारा 377 पर न्यायालय में हो रही बहस के दौरान न्यायाधीशों से अनुरोध किया गया था कि इन मामले को संसद के विवेक पर छोड़ दिया जाए और न्यायालय को बदलते सामाजिक रीति-रिवाजों के अभिभावक की भूमिका नहीं निभानी चाहिए. इस पर न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन ने कहा, ‘‘इस तरह के तर्कों को स्पष्ट तौर पर नकारा जाना चाहिए. भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों वाले अध्याय का खास उद्देश्य यह है कि व्यक्तियों की स्वतंत्रता और गरिमा वाले मसलों (विषयों) को ऐसी जगह रख दिया जाए जिससे कि वह बहुमतवादी (मेजोरिटेरियन) सरकारों की पहुंच से बाहर हो जाए.
परिणाम स्वरूप संवैधानिक नैतिकता का निर्धारण इस न्यायालय द्वारा अन्य ‘‘पृथक एवं संकीर्ण’’ ठहराए गए अल्पसंख्यकों के लिए प्रभावशाली ढंग से किया जा सके. इन मौलिक अधिकारों को चुनाव के नतीजों पर आश्रित नहीं होना चाहिए. और सामाजिक नैतिकता संबंधी जो रूढ़ीवादी मसले हैं, उनका निर्धारण बहुमत के आधार पर चुनी हुई सरकारों पर नहीं छोड़ा जा सकता.‘‘ (सरल अनुवाद) इतना ही नहीं अपनी बात को और भी स्थापित करते हुए वह कहते हैं ‘‘मौलिक अधिकार वाला अध्याय हमारे संविधान में ध्रुव तारे के मानिंद है.’’ तो यह निर्णय एक तरह से भारत में वर्तमान में विद्यमान सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक तीनों परिस्थितियों के मद्देनज़र मूल अधिकारों की अपरिहार्यत को पुनः स्थापित कर रहा है.
आज चारों ओर ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें कि अल्पसंख्यक (फिर वे चाहे जिस भी अर्थ में हों) को दोयम दर्जे का सिद्ध और उसी तरह से स्थापित करने की लहर सी चल पड़ी है. वहीं सत्ता को संतुलन बनाए रखने में समझाइश देने वाले तत्व अब सत्ता के निर्देश पर गतिविधि करने को अभिशप्त होते जा रहे हैं. ऐसे में इस निर्णय से वे सारे लोग व समूह जो कि लोकतांत्रिक के साथ समतामूलक समाज में विश्वास रखते हैं, थोड़ी साँस ले सकते हैं. इसी मुकदमे में प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने कहा कि, समता वह आधार है जिस पर संपूर्ण गैर भेदभाववादी न्यायशास्त्र खड़ा है. परंतु सवाल यह है कि समतामूलक न्यायशास्त्र की बात तो हो रही है लेकिन क्या हमारी न्यायप्रणाली उस समता के सिद्धान्त के आधार पर आचरण कर पा रही है ? क्या पूरा समाज समता को अंगीकार करने को तैयार है ? जिस स्तर पर आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है, उससे पूरा सामाजिक ताना-बाना बिखर रहा है. और यहीं पर हमारे मूल अधिकारों की प्रासंगिकता को समझना होगा. वे अटल हैं. अतएव हमें उनको ही दिशासूचक मानना होगा और जिस प्रकार ध्रुव तारा अंधेरे में भी हमें रास्ता सुझाता है, वैसे ही हमारे मूल अधिकार हमें हमारे संवैधानिक अधिकार और संवैधानिक नैतिकता के साथ ही, हमारे प्रशासन तंत्र को शासन चलाने की दिशा बता रहे हैं.
दोनों की समस्या है कि हम ध्रुव तारे द्वारा बताई दिशा की अवहेलना कर एक ऐसे बियाबान की ओर कूच कर चुके हैं, जिसमें कि कुछ भी सूझ नहीं रहा है. जबकि होना इसके ठीक उल्टा था. गहरी कालीरात में ध्रुव तारा और अधिक चमकता है अतएव वह बेहतर लक्षित होता है. ठीक ऐसा वर्तमान में भी है. चारों ओर छाए घटाटोप में मूल अधिकार ही हमारा मार्ग बन सकते हैं.
इस लिहाज से यह निर्णय समलैंगिक एवं ट्रान्सजेंडर समुदाय तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विस्तारित होकर भारतीय लोकतंत्र में निहित आकांक्षाओं के परिपालन को लेकर नई उम्मीद जतला रहा है. इस निर्णय में एक और महत्वपूर्ण टिप्पणी सामने आई है जो कि भारतीय शासन व्यवस्था की कमियों को ही नहीं, बल्कि उसके निरर्थक अहंकार को भी हमारे सामने लाती है. इस टिप्पणी में भारत शासन द्वारा इस मसले पर बहस न कर इसे न्यायालय के ‘‘विवेक’’ पर छोड़ देने को भी आड़े हाथ लिया है. वैसे केंद्र ने इतना जरूर कहा था कि अदालत इसमें समलैंगिक विवाह, गोद लेने और एलजीबीटीक्यू समुदाय के अनुषंगी अधिकारों पर विचार न करे. यहां पर विचारणीय यह है कि भारत की चुनी हुई सरकार इतने महत्वपूर्ण मसले पर अपना मत क्यों नहीं रख रही है. इसका सीधा सा अर्थ यही निकलता है कि सरकार इन यौन अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति पूर्णतया उदासीन है. एक ऐसा मसला जिस पर कि पिछले तीन दशक से ज्यादा वक्त से बहस और संघर्ष चल रहा है तथा मामले के पक्ष व विपक्ष दोनों में फैसले आ चुके हैं, उस पर सरकार तटस्थ कैसे रह सकती है ? दूसरे शब्दों में कहें तो तटस्थता का अर्थ है अन्याय की निरंतरता को बनाए रखना. यह मसला छोटा नहीं था. इसमें तय होना था कि समलैंगिकता प्राकृतिक अवस्था है या कृत्रिमता या बनावटी चीज है.
हमें याद रखना होगा कि राज्य के पीछे के गठन की परिकल्पना दुर्बलों का संरक्षण है. परंतु यहां सरकार ने ऐसा नहीं किया. शायद वह जिस विचारधारा को मानती है, वहां अभी भी इस विषय पर रूढ़ीवादी सोच हावी है. यही सही, तो सरकार को उस नजरिए से अपनी बात सामने रखनी चाहिए थी. परंतु कन्नी काट लेने से यह बात उभर रही है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को संचालिक करने वाली सरकार निर्णय लेने में सकुचाती है. इसीलिए न्यायमूर्ति नरिमन की टिप्पणी कि सामाजिक नैतिकता संबंधी जो रूढ़ीवादी मसले हैं उनका निर्धारण चुनी हुई सरकारों पर नहीं छोड़ा जा सकता, बेहद उपयुक्त है. भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपने इस साहसिक, न्यायपूर्ण व दूर दृष्टि वाले निर्णय के लिए बधाई का पात्र है.
समलैंगिक समुदाय ने विश्वभर में अपने अधिकारों को पाने के लिए शताब्दियों लंबा संघर्ष किया है. भारत में यह धारा 377 के तहत अप्राकृतिक कृत्य था और दंडनीय अपराध भी. गौर करिए पहली बार सन् 1290 में फ्लेटासंधि के तहत यह सामान्य अपराध की श्रेणी में आया और इसकी सजा जिन्दा जलाना थी. 1533 में ब्रिटेन में इसके लिए मौत की सजा नियत थी. वहां सन् 1861 में सजा घटाकर 10 वर्ष से आजीवन कारावास तक की गई. भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे सन् 1828 में दंडनीय अपराध माना और सन् 1861 की भारतीय दंड संहिता ने धारा 377 स्थापित की जो कि अब भी जारी है. परंतु इससे समलैंगिकता को छूट मिल गई है. इस निर्णय ने बतलाया है कि स्वतंत्रता और गरिमा के लिए मानवीय संघर्ष शताब्दियों तक चलते हैं और अन्ततः न्याय मिलता भी है, पर किस कीमत पर, यह विचारणी है. अक्सर पेड़ लगाने वाला फल नहीं खाता. परन्तु मजा तो इसी में है कि तब भी पेड़ लगना बंद नहीं होते. जीत के लिए सलाम.