डियर जिंदगी: बच्‍चे को 'न' कहना!
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डियर जिंदगी: बच्‍चे को 'न' कहना!

बच्‍चे जितने प्रेम, स्‍नेह से न सुनेंगे. उसे ग्रहण करेंगे, जीवन में संघर्ष की धूप का सामना भी उतनी ही आसानी से कर पाएंगे.

डियर जिंदगी: बच्‍चे को 'न' कहना!

बच्‍चों को यथासंभव सुख-सुविधा देने के बीच यह भी जरूरी है कि उनको संघर्ष की धूप मिलती रहे. ठीक, वैसे ही जैसे शरीर को प्रकृति की सहज धूप की जरूरत होती है. धूप की कमी से 'विटामिन-डी'  की कमी हो जाती है. जिसके परिणाम जानलेवा भी हो सकते हैं.  कुछ इसी तरह से अगर बच्‍चों को संघर्ष की धूप सही तरीके से नहीं मिली, तो उसकी कीमत जीवन के उतार-चढ़ाव के वक्‍त बहुत ज्‍यादा चुकानी पड़ सकती है.

छत्‍तीसगढ़ के रायपुर से अनुराधा बिनोले ने बहुत खूबसूरत बात साझा की है. वह लिखती हैं, 'हमने बच्‍चों को न कहना  बंद कर दिया है. बच्‍चे जो भी फरमाइश करते हैं, हम उसके पीछे पड़ जाते हैं. मिसाल के लिए मेरे बेटे ने कहा कि उसे स्‍कूल के दूसरे बच्‍चे जैसा स्‍कूल बैग चाहिए. उसकी कीमत चार हजार थी. यह हमारे बजट में नहीं आता. मैंने मना कर दिया, तो वह इच्‍छा लेकर पिता के पास पहुंच गया. उन्‍होंने कहा कि हम इसे वह बैग अगर सीधे नहीं दिला सकते, तो किश्‍तों में ले लेते हैं. दुकानदार पहचान का है! मेरे मना करने के बाद भी पिता-पुत्र वह बैग ले आए.'

डियर जिंदगी: प्रेम दृष्टिकोण है…

बाद में पति ने कहा कि बच्‍चों के बड़े खर्च की पूर्ति हम अपने खर्चे में कटौती करके कर सकते हैं, लेकिन उनके मन को दुखी करना ठीक नहीं. अनुराधा ने कहा कि इस बात पर घर में काफी बहस हुई, लेकिन उनके पति अपने रवैए के प्रति बेहद स्‍पष्‍ट हैं. उनका कहना है कि बचपन में उन्हें छोटी-छोटी चीज़ों, ख्‍वाहिशों के लिए मन मारकर रहना होता था, उससे उनका मन कुंठित रहता था. इसलिए, वह नहीं चाहते कि हमारे बच्‍चों पर भी वही 'छाया' पडे़.

अनुराधा का परिवार बच्‍चों की मांग के आगे सरेंडर करने वाला अकेला नहीं . बड़ी संख्‍या में ऐसे अभिभावक, माता-पिता में से कोई एक ऐसा जरूर मिल जाता है, जो बच्‍चों को 'न' नहीं कहना चाहता. वह अपनी इच्‍छा को टाल सकते हैं. उसे अनदेखा कर सकते हैं, लेकिन बच्‍चों की हर जिद, मांग को पूरा करने को अपना कर्तव्‍य मान बैठे हैं.

डियर जिंदगी: बच्‍चों के बिना घर!

अब तो यहां तक देखा जा रहा है कि बच्‍चों की मांग महंगी चॉकलेट, स्‍कूल बैग, ड्रेस से आगे निकल गई है. अब यह पसंदीदा मल्‍टीप्‍लेक्‍स में ही फिल्‍म, वहीं से शॉपिंग, चुनी कंपनी के ही प्रोडक्‍ट से होते हुए हर उस चीज की ओर जा रही है, जो दूसरों के पास है. उनके साथियों के पास है. उनको भी वही चाहिए. इसलिए टीवी पर बच्‍चे बड़ी संख्‍या में अपनी ही उम्र के विज्ञापन में नजर आने के साथ लगभग हर दूसरे विज्ञापन में नजर आने लगे हैं. क्योंकि वह घर पर बड़ों से जिद कर सकते हैं कि पापा/मां उनकी पसंद के कपड़े पहनें. ऐसे कपड़े पहनें जो ब्रांडेड हैं. जो उनके साथियों के माता-पिता पहनते हैं.

डियर जिंदगी: रास्‍ता बुनना!

हमारे एक परिचित ने ऐसी मध्‍यमवर्गीय कार को चुना जो उनके बजट से थोड़ी बाहर थी, लेकिन जिसे उनके बच्‍चों ने इस आधार पर 'वोट' किया कि इससे 'कम' रेंज की कार उनके दोस्‍तों में से किसी परिवार के पास नहीं है. बच्‍चों की मांग को हमने आत्‍मसम्‍मान से जोड़ लिया. मना करते वक्‍त लगता है, इससे उनकी नजर में हमारी प्रतिष्‍ठा कम हो जाएगी! आप हमारे लिए इतना भी नहीं कर सकते, इस सवाल का हमें भावुक नहीं, तार्किक जवाब खोजना होगा!

इसका हल डांट, डपट और चिल्‍लाहट से भी नहीं मिलेगा. ठंडे दिमाग, शांत चित्‍त होकर बच्‍चों को साथ लेकर बैठना होगा. उन्‍हें समझाना होगा कि परिवार की प्राथमिकता क्‍या है. सपनों को पूरा करने में बच्‍चों को सहभागी बनाना होगा. कम अधिक उम्र के फेर से भी बचना होगा. बच्‍चों को जैसा ढाला जाए वह वैसे ही बनते हैं. इसलिए, अभी से वह जिस भी उम्र में हैं, उनके साथ संवाद को नियमित, निरंतर करना होगा.

डियर जिंदगी: ‘ कड़वे ’ की याद!

बच्‍चे जितने प्रेम, स्‍नेह से न सुनेंगे. उसे ग्रहण करेंगे, जीवन में संघर्ष की धूप का सामना भी उतनी ही आसानी से कर पाएंगे.

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पता : डियर जिंदगी (दयाशंकर मिश्र)
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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