उपवासों की नाकामी के दौर में गांधी के उपवास दर्शन को समझना जरूरी है
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उपवासों की नाकामी के दौर में गांधी के उपवास दर्शन को समझना जरूरी है

‘‘अनशन (उपवास) का सहारा केवल प्रेमी के खिलाफ ही लिया जा सकता है, और यह उससे अधिकार लेने के लिए नहीं, बल्कि उसे सुधारने के लिए है. ठीक वैसे ही जैसे कि कोई बेटा अपने शराबी पिता के लिए अनशन करे. बम्बई और उसके बाद बारडोली के मेरे उपवास उसी तरह के थे.’’- गांधी (यंग इंडिया - 01.05.1924)

उपवासों की नाकामी के दौर में गांधी के उपवास दर्शन को समझना जरूरी है

प्रो. जीडी अग्रवाल (स्वामी सानंद) की अविरल गंगा की मांग को लेकर चल रहे अनशन के 111वें दिन मृत्यु हो गई. अपनी व्यथा व नमामि गंगे परियोजना की कमियों और सीमाओं की ओर ध्यान दिलाते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री को तीन पत्र लिखे थे. पहला 24 फरवरी, 2018 उसके बाद 13 जून 2018 एवं तीसरा अनशन प्रारंभ करने के पहले. प्रो. अग्रवाल इससे पहले सन् 2008 में 18 दिन का, सन् 2009 में 38 दिन और सन् 2013 में 101 दिन का उपवास गंगा की रक्षा हेतु कर चुके थे और इसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली थी. गौरतलब है कि गंगा की रक्षा (शुद्धिकरण व अविरल प्रवाह) को लेकर स्वामी निगमानंद ने 110 दिन अनशन करने के बाद देह त्याग दी थी. अभी प्रो. अग्रवाल के साथी संत गोपालदास को अनशन करते हुए (इसी विषय पर) 117 दिन बीत चुके हैं और उन्होंने भी संथारा (इच्छामृत्युकरण) की आकांक्षा जाहिर कर दी है.

 भारत में सत्याग्रह की परिकल्पना में गांधी ने अनशन को सर्वोच्च स्थान दिया है. यहां इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि आजादी के बाद सिर्फ गंगा के मसले पर ही लोगों ने अनशन कर प्राण नहीं त्यागे हैं. वास्तविकता यह है कि आजादी के कुछ ही साल बाद, सन् 1953 में, पृथक आंध्रप्रदेश (तेलांगना) की मांग पर अड़े पोट्टी श्री रामुलु का 53 दिन तक उपवास के बाद निधन हो गया था. वहीं पंजाब के संत दर्शनसिंह फेरुमान ने चंडीगढ़ को पंजाब में मिलाने की मांग को लेकर किए गए अपने अनशन के 74वें दिन 27 अक्टूबर, 1969 को देह त्याग दी थी. उन्होंने अपना अनशन 15 अगस्त, 1969 को जेल में प्रारंभ किया था.

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प्रो. अग्रवाल के 101 दिन के अनशन को लेकर तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने संसद में कहा था कि भारत नदियों की सभ्यता है इसे सुरंगों की भूमि में नहीं बदला जा सकता. तो आखिर ऐसा क्या हो रहा है जिसकी वजह से विवादों को निपटाने के लिए आपसी विमर्श का रास्ता अब बंद होता जा रहा है ? गंगा नदी जो कि भारतीय सभ्यता का मूलाधार है पर भी संवाद न हो पाना एक तरह से हमारे सामने वस्तुतः सभ्यतामूलक संकट है. सन् 1978 में आई व्यावसायिक फिल्म गंगा की सौगंध का शीर्षक गीत गीतकार अंजान ने कुछ इस तरह लिखा:

मानों तो मैं गंगा मां हूं, न मानो तो बहता पानी
जो स्वर्ग ने दी धरती को, मैं प्यार की वही निशानी.

यहां सवाल किसी एक दल, या किसी विषेष सरकार से नहीं है. हमारी पूरी राजनीतिक व्यवस्था, और सिर्फ राजनीतिक ही नहीं सामाजिक व्यवस्था में निष्ठुरता घर कर गई है. डा. अग्रवाल या स्वामी निगमानंद से सहमति या असहमति अपनी जगह पर है और उसका सम्मान भी किया जाना चाहिए, लेकिन एक लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं राज्य में यह कैसे संभव है कि एक व्यक्ति किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए अपनी जान दे दे और पूरा देश कमोबेश निर्लिप्त बना रहे ? इस ह्दयहीनता को हम - आप किस तरह से देखते हैं ! यह गांधी का देश है या हम किसी और देश में रह रहे हैं. गंगा और उस जैसी तकरीबन सभी नदियों, अपवाद स्वरूप ब्रह्मपुत्र को छोड़कर, में अब बारहों महीने प्रवाह नहीं रहता. ये सभी मौसमी या वर्षा ऋतु की नदियों में बदलती जा रही है. परंतु पूरे देश में सन्नाटा बरपा हुआ है. अपने अंत की भविष्यवाणी भी हमें सुनाई नहीं दे पा रही है. वरना अनशन जैसा अमोघ अस्त्र भी खाली कैसे चला गया ?

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गांधी अपने पूरे संघर्ष में अनशन या उपवास नामक अस्त्र या उपाय का बार-बार उपयोग करते हैं. वैसे तो गांधी जी ने अपने जीवन में छोटे-बड़े कुल मिलाकर 30 बार से अधिक अनशन किया है. परंतु उनमें 17 को बेहद महत्वपूर्ण माना गया. इनमें से 2 दक्षिण अफ्रीका में और बाकी भारत में हुए. नजर डालते हैं, उनके अनशन के विषयों की विविधता पर. दक्षिण अफ्रीका में सन् 1913 व 1914 में क्रमश: 7 व 14 दिन के उनके अनशन पश्चाताप हेतु थे, जिसमें आश्रमवासियों की व्यक्तिगत गलतियों के लिए उन्होंने स्वयं को सजा दी थी ! गांधी जी कहते हैं, ‘‘मैं जानता हूँ उपवास नामक अस्त्र को हल्के से नहीं लिया जा सकता. इसमें आसानी से हिंसा का पुट दिया जा सकता है. अतएव इसे इस कला में बेहद कुषल के द्वारा ही प्रयोग में लाया जाना चाहिए. मैं इस विषय के ऐसे ही एक कलाकार होने का दावा करता हूँ.’’ (हरिजन 11.03.1939) और वे जीवनभर इस कला का बेहद समझदारी से प्रयोग भी करते है.

भारत में उनका पहला अनशन अहमदाबाद के कपड़ा मिल मजदूरों की मांगों को लेकर था. यह मिल श्री साराभाई की थी और गांधी वहां उन्हीं के मेहमान थे. इतना ही नहीं साराभाई की बेटी अनुसया साराभाई, संघर्ष में अपने पिता के खिलाफ मजदूरों के साथ थीं. गांधी जी का यह तीन दिवसीय अनशन 15 से 18 मार्च सन् 1918 में हुआ था. उनका दूसरा अनशन नडिआद में ट्रेन को पटरी से उतारने की कोशिश को लेकर था. यह हिंसा के खिलाफ उनका पहला अनशन था जो उन्होंने 14 से 16 अप्रैल 1919 को किया था. उनके अनशन हमें बताते है कि वे भारत को लगातार अहिंसक बनने के लिए प्रेरित व शिक्षित कर रहे थे. सन् 1921 में (19 से 22 नवंबर) तक उनका 4 दिवसीय अनशन प्रिंस आफ वेल्स की भारत यात्रा के दौरान हुई अराजक गतिविधियों को लेकर था. यहां वे औपनिवेशिक शासक के खिलाफ भी हिंसा को स्वीकार नहीं करते हैं. उनका बेहद और संभवतः सबसे महत्वपूर्ण अनशन भी हिंसा के खिलाफ ही था. यह उन्होंने सन् 1922 (2 से 7 फरवरी) में बारडोली में किया था. यह अनशन उन्होंने चौरा चोरी में हुई हिंसा जिसमें एक थाने में पुलिसकर्मी जिंदा जला दिए गए थे, के खिलाफ किया था.

रुचिकर तथ्य उभरता है कि उपरोक्त दोनों अनशन गांधी जी ने उन लोगों के खिलाफ हुई हिंसा को लेकर किए थे, जो स्वयं भारतीयों पर बर्बर हिंसा कर रहे थे. यहीं गांधी के साधन व साध्य की पवित्रता को लेकर की गई स्थापना भी सत्यापित होती है. इतना ही नहीं गांधीजी ने चौराचौरी की घटना से दुखी होकर पूरा आंदोलन ही यह कहते हुए वापस ले लिया था कि भारत अभी मेरी तरह (अहिंसक) आजादी के लिए तैयार नहीं हुआ है. इसका सीधा सा अर्थ निकलता है कि गांधी अहिंसा को किस विराटता में देखते हैं और उस विराटता में वे किसी को दुष्मन तो क्या विरोधी भी नहीं मानते ! जो सिपाही क्रूरता कर रहे हैं, गोलियां चला रहे हैं, वे भी उनके उतने ही प्रिय हैं, जितने कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी.

गांधी जी दिल्ली में 27 सितंबर से 8 अक्टूबर 1924 तक यानी 21 दिन के अनशन पर बैठे. यह उनके पहले सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद हुआ था और हिन्दु मुस्लिम एकता के हितार्थ यह उनका पहला अनशन भी था. उन्होंने अपना यह अनशन कुरान और गीता सुनते हुए समाप्त किया था. यहीं पर एक और बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि गांधी नए भारत के लिए जो 18 रचनात्मक कार्य बतलाते हैं उनमें पहला है हिन्दू - मुस्लिम सांप्रदायिक सौहार्द. सन् 1925 में वे आश्रम के लड़के-लड़कियों के संबंधों को लेकर (24 नवंबर से 30 नवंबर) पुनः 7 दिवसीय पश्चाताप उपवास रखते हैं. सन् 1932 में उनके द्वारा एक और उपवास जो कि अस्पृष्यता के खिलाफ उनका पहला अनशन था, पूना में 20 से 26 सितंबर तक किया गया. यह मूलतः दलितों (वे उन्हें हरिजन पुकारते थे) को पृथक मतदाता सूची एवं वंचित वर्ग के लिए स्थानों के आरक्षण के खिलाफ था. यह उपवास उन्होंने यरवदा जेल के भीतर ही प्रारंभ कर दिया था और रिहाई के बाद निजी घर में भी जारी रहा. इसी के परिणामस्वरूप पूनापेक्ट या पूना समझौता सामने आया.

सन् 1932 में ही उन्होंने अप्पा साहब पटवर्धन के समर्थन में अपना दूसरा (एक दिवसीय) अस्पृष्यता विरोधी अनशन किया. इसी क्रम में 8 मई से 29 मई 1933 तक 21 दिनों का उनका तीसरा अस्पृश्यता विरोधी अनशन हरिजनों की परिस्थिति में सुधार के लिए था. इसी वर्ष 16 से 23 अगस्त तक उन्होंने पुनः 7 दिवसीय अस्पृश्यता विरोधी अनशन जेल में ही किया जहां उन्हें इस बात में सफलता मिली कि वे जेल में हरिजनों वाले कार्य कर पाए. सन् 1934 में 7 से 14 अगस्त तक उन्होंने युवा कांग्रेसियों द्वारा की जा रही हिंसा के खिलाफ अपना हिंसा विरोधी अनशन किया था. 3 से 6 मार्च 1939 को उन्होंने राजकोट के शासक द्वारा की गई वादा खिलाफी के विरुद्ध राजकोट में ही अनशन किया. सन् 1941 (12-13 नवंबर) में बम्बई और अहमदाबाद में हुए सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ अनशन किया.

सन् 1943 में 10 फरवरी से 3 मार्च तक दिल्ली में अपनी अवैध गिरफ्तारी को लेकर अनशन किया था. उनके द्वारा किया गया एक दिवसीय अनशन हमारी निगाह से छूट जाता है. वह है 15 अगस्त 1947 को उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर भारत-पाकिस्तान विभाजन को लेकर किया था. इसी वर्ष 1 से 7 सितंबर तक उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिक सौहार्द को लेकर अनशन किया था. इस सबके अतिरिक्त उन्होंने तीस के दशक में प्रण लिया था कि जब तक स्वतंत्रता नहीं मिल जाती वे सोमवार का उपवास रखेंगे. उनका अंतिम उपवास 13 से 18 जनवरी 1948 तक हुआ था. यह उपवास अपने आप में एक गाथा है और इसका विश्लेषण एक वृहद समीक्षा मांगता है. परंतु उनके इस उपवास ने आजादी के बाद दंगों को समाप्त किया था और बंटवारे की कटुता को कम करने में मदद भी की थी. वहीं दूसरी और एक वर्ग इसके परिणामों को लेकर बेहद नाराज था और इसकी परिणिति उनकी हत्या में हुई.

उनके अनशन/उपवास की विस्तृत विवेचना का समय अब आ गया है. यहां इस बात पर गौर करना आवश्यक है कि गांधीजी का एक भी अनशन अंग्रेजों से आजादी मांगने के लिए नहीं था. वे आजादी के संघर्ष को अपने अनशनों के माध्यम से लगातार मजबूत बना रहे थे. प्रो. जी.डी. अग्रवाल और स्वामी निगमानंद जैसे मनुष्यों का अनशन क्यों व्यापक असंतोष या चिन्ता को उजागर नहीं कर पाया ? या शासकवर्ग को इन अनशनों ने प्रभावित या जागरूक क्यों नहीं किया ? या शासन तंत्र व आम नागरिक इन अनशनों/उपवासों के वजह से हुई मृत्यु को लेकर शर्मिंदा क्यों नहीं हैं, यह ज्यादा चिन्ता के विषय है!

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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