NCDRC ने टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी और डीलर कॉनकॉर्ड मोटर्स को आदेश दिया कि वो ग्राहक को पूरे 4,58,853 रुपए लौटाएं. साथ ही मुकदमा लड़ने के मुआवजे के तौर पर 10,000 और चुकाएं.
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एक तरफ अकेला कंज्यूमर और दूसरी तरफ दादागीरी पर उतारू एक दिग्गज ऑटो कंपनी, लेकिन कंज्यूमर की ज़िद और कानून के डंडे का असर ये हुआ कि कंपनी को घुटने टेकने पड़े. ये कहानी है कि उस जुझारू शख्स की जिसने अपने हक के लिए लड़ते हुए दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन 18 साल बाद जब अदालत का फैसला आया तो उसके परिवार में खुशियों की लहर दौड़ गई.
कैसे शुरू हुआ पूरा विवाद?
मई 2000 की बात है. मुंबई के विले पार्ले में रहनेवाले अभय आर भाटवाडेकर ने एक गाड़ी बुक की- टाटा इंडिका डीजल. एक्सेसरजीज़ और इंश्योरेंस सब मिलाकर उन्होंने कीमत चुकाई 4,58,853 रुपए. डीलर ने वादा किया कि 15 मई तक उन्हें गाड़ी मिल जाएगी. लेकिन 26 मई तक गाड़ी नहीं मिली. 26 को जब अभय गाड़ी लेने शोरूम पहुंचे तो देखकर हैरान रह गए कि गाड़ी की हालत खस्ता है. सेंट्रल लॉक काम नहीं कर रहा है, इंजन शोर कर रहा है. लेकिन डीलर की पेशकश थी- आप गाड़ी ले जाएं, गड़बड़ी हम दूर करा देंगे. अभय ने गाड़ी लेने से इनकार कर दिया. उन्होंने कंपनी के वीपी से मांग की- या तो उन्हें दूसरी गाड़ी दी जाए या फिर पूरा पैसा ब्याज समेत लौटाया जाए . लेकिन उनकी नहीं सुनी गई. डीलर ने पेशकश की कि 30 मई तक वो सारी कमियां दूर करके गाड़ी डिलिवर कर देगा.
कंपनी की चोरी और सीनाजोरी
30 मई 2000 को टाटा इंडिया अभय भाटवाडेकर के घर पहुंच गई. अभय गाड़ी की हालत देखने के बाद तय कर चुके थे कि उन्हें दूसरी गाड़ी मिलनी चाहिए. लिहाजा उन्होंने गाड़ी लेने से इनकार कर दिया. लेकिन डीलर अपनी जिद पर उतारू था, गाड़ी जबरन उनके घर पर छोड़ दी गई. आमतौर पर गाड़ी की डिलिवरी शोरूम पर होती है लेकिन यहां गाड़ी को जबरन कंज्यूमर के घर पर छोड़ा गया. हैरानी की बात ये है कि गाड़ी की खराबी अब भी दूर नहीं हुई थी.
शिकायतकर्ता ने क्या बताया?
शिकायत के मुताबिक अगले एक साल में गाड़ी को ठीक कराने के लिए 8 बार गैराज ले जाना पड़ा. जाहिर है इसमें अभय का काफी पैसा भी खर्च हुआ. अभय ने कंपनी से ही फाइनल रिपेयर कराया लेकिन गाड़ी वापस आई तो लाने वाला ड्राइवर खुद सेंट्रल लॉक में बंद हो गया. इसके बाद अभय ने को मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी को चिट्टी लिखी और 7 दिन के भीतर अपने पूरे पैसे लौटाने की मांग की. कंपनी ये मांग पूरी नहीं की. आखिरकार अभय ने महाराष्ट्र कंज्यूमर कमीशन का दरवाजा खटखटाया.
छोटी अदालत में कंपनी बड़ी भारी
महाराष्ट्र कंज्यूमर कमीशन में कंपनी ने दावा किया कि अभय के सारे आरोप झूठे हैं, गाड़ी में जो भी छोटी मोटी गड़बड़ी थी वो दूर कर दी गई थी और उन्हें पूरी तरह संतुष्ट कर दिया गया था. कंपनी ने कहा कि इंजन में जो शोर था उसे भी ठीक करा दिया गया था, इसलिए सेवा में कमी का आरोप गलत है. डीलर ने दलील दी- ऐसा लगता है कि शिकायतकर्ता पैसे वापस लेने का मन बना चुका था, इसलिए हर शिकायत दूर करने के बाद भी उसने गाड़ी नहीं ली. अभय की तमाम कोशिशों के बावजूद मार्च 2011 में राज्य कंज्यूमर कमीशन ने कंपनी के पक्ष में फैसला सुना दिया.
बड़ी अदालत में हुई कंज्यूमर की जीत
स्टेट कमीशन के फैसले से नाखुश अभय ने NCDRC यानी नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट्स रिड्रेसल कमीशन में अर्जी दी. NCDRC ने पाया कि कंपनी के पास गाड़ी के डेलिवर होने की लिखित रिसीविंग नहीं है. कंपनी ने खुद माना था कि ग्राहक ने लिखित में रिसीविंग देने से इनकार कर दिया था. तो सबसे बड़ा सवाल यही बन गया कि कंज्यूमर जब गाड़ी लेने को तैयार नहीं था फिर भी गाड़ी वहां क्यों छोड़ी गई. बेंच ने अपने आदेश में कहा -' ये बात समझ से परे है कि डीलर ने डिलिवरी के वक्त एक्नॉलेजमेंट की जरूरी औरचारिकता पूरी क्यों नहीं की. डिलिवरी के लिखित सबूत नहीं होने की सूरत में हम मानते हैं कि मैन्यूफैक्चरर और डीलर की तरफ से सेवा में कमी हुई.'
18 साल बाद मिला मुआवज़े का मरहम
NCDRC ने ये भी नोटिस किया कि वारंटी पीरियड में गाड़ी को रिपेयर के लिए 8 बार गैराज भेजना पड़ा. इस दौरान गाड़ी मुश्किल से 2,500 किलोमीटर चली थी. NCDRC ने टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी और डीलर कॉनकॉर्ड मोटर्स को आदेश दिया कि वो ग्राहक को पूरे 4,58,853 रुपए लौटाएं. साथ ही मुकदमा लड़ने के मुआवजे के तौर पर 10,000 और चुकाएं. ये जजमेंट तकरीबन 18 साल बाद सितंबर 2018 में आया. इस बीच अभय आर भाटवाडेकर का निधन हो चुका था, लेकिन जाते-जाते भी अभय ने साबित कर दिखाया कि अगर आप सही हैं तो हौसला कभी न छोड़ें. भले ही थोड़ी देर लगे, जीत सच्चाई की ही होगी.
(लेखक गिरिजेश कुमार ज़ी बिज़नेस से जुड़े हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)