Opinion: वंचित वर्ग के बच्चों के साथ क्यों हो रहा है सौतेला व्यवहार?
Advertisement
trendingNow1411810

Opinion: वंचित वर्ग के बच्चों के साथ क्यों हो रहा है सौतेला व्यवहार?

वंचित समाज के बच्चों के संदर्भ में दुनिया के सबसे ताकतवर व सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था में कोई मौलिक अंतर नहीं है. 

Opinion: वंचित वर्ग के बच्चों के साथ क्यों हो रहा है सौतेला व्यवहार?

सिर्फ कुछ बच्चों के लिए
एक आकर्षक स्कूल/और अच्छी पोशाके हैं.
बाकी बच्चों का हुजूम
टपरों के नसीब में उलझ गया है.

पिछले दिनों दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र ‘अमेरिका’ और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ‘भारत’ में बच्चों से संबंधित दो खबरें और उनसे संबंधित तस्वीरें देखने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि बच्चों को लेकर खासकर वंचित समाज के बच्चों के संदर्भ में दुनिया के सबसे ताकतवर व सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था में कोई मौलिक अंतर नहीं है. दोनों ही ह्दयहीनता और संवेदनहीनता की सर्वोच्च सीमा पार कर चुके हैं. पहले भारत की बात! मध्यप्रदेश के इंदौर शहर को ‘स्मार्ट सिटी’ में परिवर्तित करने की जिद अमानवीयता की सीमा पार कर रही है. ऐसे ही एक कथित 'अतिक्रमण विरोधी' अभियान को लेकर छपे एक चित्र में एक छोटी बच्ची को एक हाथ में अपनी गुड़िया लिए और दूसरे हाथ से जमीन पर पड़ीं अपनी पाठ्य-पुस्तकों को उठाते हुए दिखाया गया. उसकी मां घर के बर्तन भांडे बटोर रही है. उधर अमेरिका-मैक्सिको सीमा पर अप्रवासियों की घुसपैठ रोकने वाली तस्वीर में एक डरी हुई बच्ची को अपनी मां के पैर से लिपटा दिखाया गया है. वहां के कानून के अनुसार, अवैध अप्राविसयों के बच्चों को वयस्कों या उनके माता, पिता, पालकों से अलग कर दिया जाता है. एक अन्य तस्वीर में ये बच्चे अनाथों जैसी हालत में एक बड़े कक्ष में हैं और उनकी मर्मातक पीड़ा व दुख की आवाजें टेप करके हम तक पहुंचाई गई हैं. दोनों ही लोकतांत्रिक देश बच्चों पर अत्याचार ‘कानूनन’ करने की बात कह रहे हैं.

बच्चे ही कल के नागरिक बनेंगे, यह नारा बड़े जोर-शोर से दोहराया जाता है. परंतु कोई भी वयस्क यह समझने को तैयार नहीं है कि बच्चे बेहद संवेदनशील होते हैं और उनकी संवेदना उनके आर्थिक स्तर की मोहताज नहीं होती. भारतीय कथा साहित्य में बच्चों के मनोविज्ञान को लेकर दो बेहद संवेदनशील कहानियां रची गई हैं. एक है मुंशी प्रेमचन्द द्वारा रचित ‘ईदगाह.’ इसमें एक गरीब मुस्लिम बच्चा हामिद ईद पर ईदगाह जाता है. बाकी बच्चों के पास अधिक पैसे हैं. वे तरह-तरह के खिलौने वगैरह खरीदते हैं. हामिद का ध्यान कहीं और है. उसके दिमाग में उसकी बूढ़ी दादी है. दादी की जली हुई उगलियां हैं जो बढ़ती उम्र की वजह से ठीक से न देख पाने पर तवे पर रोटी बनाते समय अक्सर जल जाती है. वह एक चिमटा खरीदा लेता है. दोस्त उसका मजाक उड़ाते हैं, पर दादी के आंसू निकल आते हैं. हामिद की संवेदनशीलता और अपने प्रति स्नेह व लगाव देखकर! इसी तरह सुदर्शन की कहानी है ‘सबसे अच्छा बस्ता.’ स्कूल में सबसे अच्छे बस्ते को लेकर स्पर्धा है. 

यशोदा नाम की लड़की की मां उसके लिए खूब सुंदर बस्ता तैयार करती है, जिससे कि उसे सबसे अच्छे बस्ते का इनाम मिल सके. स्कूल आते समय यशोदा सड़क किनारे पड़ी एक बूढ़ी महिला को देखती है. कुष्ट रोग के कारण उसके शरीर पर जो घाव हो गए हैं, उस पर मक्खियां भिनभिना रही है. बीमार, कमजोर व असहाय बूढ़ी महिला कुछ भी नहीं कर पा रही है. यशोदा अपना बस्ता उधेड़कर उस महिला पर डालकर उसके घावों को ढक देती है! बगैर बस्ते के स्कूल आते देख अध्यापिका बहुत नाराज होती है. कारण पता लगाने पर स्कूल बिना किसी संकोच के यशोदा के बस्ते को उस प्रतियोगिता का विजेता घोषित कर देता है. कहने का तात्पर्य यह है कि सभी बच्चे कमोवेश इतने ही संवेदनशील और स्वयं निर्णय लेने में समर्थ होते हैं, ऐसे में उनपर हो रहे अत्याचार उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में विकसित कर सकते हैं, जो व्यापक समाज के प्रति बहुत संवेदनशील न हो. हमारे समय की समस्या यह है कि हम मानते हैं कि मनुष्य की प्रत्येक समस्या एक बीमारी है और इसका तकनीक या दवाइयों से उपचार किया जा सकता है.

बच्चों के साथ किए गए अमेरिकी प्रशासन के व्यवहार की सभी ओर बेहद आलोचना हुई और दबाव पड़ा कि अमेरिका अपने आव्रजन कानूनों में परिवर्तन करे. अमेरिकी राष्ट्रपति की पत्नी और बेटी भी इस मुहिम का हिस्सा बनीं. परंतु परिणाम यह सामने आया कि अंतर्राष्ट्रीय आलोचना से नाराज होकर अमेरिका ने स्वयं को ‘संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग’ से अलग कर लिया. मामला तब भी ठंडा नहीं पड़ा तो अंततः राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस बात पर राजी हुए कि वे अवैध शरणार्थियों के बच्चों को परिवार से अलग करने पर रोक लगाएंगे. अभी न्याय विभाग इसका मजमून तैयार कर रहा है. भारत में तो जनमत का कोई महत्व ही नहीं रह गया है. अभी पिछले दिनों तमिलनाडु के तूतिकोरण में स्टरलाइट तांबा परिशोधन संयंत्र के खिलाफ संघर्षरत 17 वर्षीय लड़की की मौत पुलिस की गोलीबारी में हो गई. उसके मुंह में गोलियां लगी थीं. हमने देखा था कि कुछ बरस पहले पाकिस्तान में मलाला पर तालिबानी गोलीबारी को लेकर कितना हंगामा बरपा था. परंतु भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ. इससे भी पता चलता है कि हम अपने बच्चों को लेकर बहुत गंभीर नहीं हैं. 10 साल की बच्ची मां बनती है और छः माह की लड़की से बलात्कार होता है. हजारों नाबालिग लड़के-लड़कियां यौन उत्पीड़न का शिकार हैं, मगर प्रतिक्रिया में चार बार ‘‘चच्चच’’ के उच्चारण से आगे हम बढ़ ही नहीं पा रहे हैं. 

एक ओर आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं और दूसरी ओर सबसे ज्यादा स्थूल बच्चे भी भारत में ही हैं. देवताले कहते हैं, "एक मेज है. सिर्फ छह बच्चों के बीच. और उनके सामने उतने ही अंडे और उतने ही सेब हैं. एक कटोरदान है सौ बच्चों के लिए. और हजारों बच्चे. एक हाथ में रखी आधी रोटी को. दूसरे से तोड़ रहे हैं."

हामिद और यशोदा हमें पिछली एक शताब्दी से समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि हम उन्हें समझें. परंतु आजादी के बाद तो जो थोड़ी बहुत संवेदना, मनोवैज्ञानिक स्तर पर बच्चों को समझने को लेकर थी वह भी समाप्त होती जा रही है. बांधों, सड़कों, टाइगर रिजर्व, सड़क निर्माण, शहरों के सौंदर्यीकरण, औद्योगिक क्षेत्र, विशेष आर्थिक क्षेत्र वगैरह से आजादी के बाद 10 करोड़ से ज्यादा भारतीय नागरिक विस्थापित हो चुके हैं. इनमें से 4 करोड़ से ज्यादा बच्चे हैं. परंतु विकास योजनाओं के पुरोधाओं ने कभी विस्थापित बच्चों के बारे में सोचा ही नहीं. नर्मदा नदी पर बन रहे सरदार सरोवर बांध से सिर्फ मध्यप्रदेश के 194 गांवो व एक कस्बे के करीब 50,000 परिवार विस्थापित होंगे. औसतन प्रति परिवार दो बच्चे भी माने से यह संख्या 1 लाख तक पहुंचती है. वहीं पुर्नवास स्थालों पर न तो विद्यालय बने हैं, न स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, न खेल के मैदान है, न बगीचे है और न ही पेड़ पौधे हैं. ऐसे में बच्चों की स्थिति क्या होगी? लेकिन सरकार को इससे कुछ भी लेना देना नहीं है. यही परिस्थिति प्रत्येक श्रेणी के विस्थापितों के साथ है. यही विस्तारित होते हुए हमें अफगानिस्तान, सीरिया, तुर्की, यमन, उपसहारा अफ्रीकी देशों, लेटिन अमेरिका और अब तो अमेरिका में भी नज़र आ रही है. जर्मनी के अलावा कोई अन्य देश शरणार्थियों को मनुष्य ही मानने को तैयार नहीं है. यही स्थिति हमारे उपमहाद्वीप में म्यांमार (बर्मा) के रोहिंग्या मुसलमानों के साथ बन गई है. जिस निर्ममता से उनके साथ व्यवहार हो रहा है, वह उनके बच्चों की भयावह परिस्थितियों में बीमारी और भूख की तस्वीरों से साफ दिखाई दे रहा है. परंतु हम कथित राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बच्चों की दुर्दशा को अनदेखा कर रहे है.

निर्मल वर्मा लिखते हैं, "भारत केवल एक राज्य-सत्ता नेशन स्टेट नहीं है - जैसा कि पश्चिम की राष्ट्रीय सत्ताएं है, जो अपनी ही सीमाओं में आबद्ध होकर ही अपनी अस्मिता को परिभाषित करते हैं. इसके विपरीत शताब्दियों से हमारे देश की सीमाएं वे स्वागत द्वार रहे हैं, जिनके भीतर आते ही उत्पीड़ित और त्रस्त जातियां अपने को सुरक्षित पाती हैं." हम पारसियों, यहूदियों, तिब्बतियों, बांग्लादेशियों का उदाहरण सामने रख सकते हैं. परंतु आज तो हम रोहिंग्या क्या अपने ही वंचित वर्ग के बच्चों से सौतेला व्यवहार कर रहे हैं. शहर से मीलों दूर किसी टीन के मकान में जेठ की दोपहरी में वह बच्ची जो अभी भी भविष्य से अनजान अपनी गुड़िया और किताबें अपने दोनों हाथों में थामे है, क्या कभी खेल पाएगी या पढ़ पाएगी? सरकारी आंकड़ों में सब कुछ होगा. 

कुपोषण से हुई मौत शायद लिवर के संक्रमण से हुई मौत बन जाएगी. वह बच्ची अपनी गुड़िया को कहीं रखकर भूल जाएगी और एक दिन अपने बचपन को भुला अपनी मां का आंचल पकड़े हमारे- आपके घर में बर्तन मांजने पहुंच जाएगी. वह तब भी इस बात से अंजान होगी कि संभवतः एक दिन वह भी अपनी बिटिया को इसी तरह अपने आंचल से बांध कर किसी घर में साफ सफाई करने को छोड़ आएगी. ऐसा इसलिए होगा क्योंकि भारत में जो अत्यधिक गरीब हैं वे पिछले 50 वर्षों से इस दलदल से बाहर नहीं निकल पाए हैं और यही उनकी नियती बन गई है. देवताले ठीक ही कहते हैं, "ईश्वर होता तो इतनी देर में उसकी देह कोढ़ा गलने लगती, साथ होता तो वह अपनी न्यायाधीश. कुर्सी से उतर जलती सलाखें आंखों में. खुपस लेता सुंदर होता तो वह अपने चेहरे. पर तेजाब पोत, अंधे कुएं में कूद गया होता लेकिन.’’

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news