आज जब हम विधानसभा और लोकसभा चुनावों की प्रक्रिया में प्रवेश कर रहे हैं, तब राजनीतिक दलों, विश्लेषकों से रणनीतिकारों से यह स्वाभाविक अपेक्षा की जाती है कि वे बच्चों के कुपोषण को विकास और बेहतर भविष्य के लिए एक अनिवार्य राजनीतिक-आर्थिक मुद्दे के रूप में इसे केंद्र में रहें
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21वीं सदी में जन्म लेने वाली पीड़ी वर्ष 2018-19 में पहली बार मतदान करेगी. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक इस अवधि में अखिल भारतीय स्तर पर सवा पांच करोड़ बच्चे वयस्क होंगे. भारत के सात राज्यों, मध्यप्रदेश (34.39 लाख), उत्तर प्रदेश (1.01 करोड़), महाराष्ट्र (52.88 लाख), राजस्थान (33.20 लाख), छत्तीसगढ़ (11.61 लाख) और बिहार (55.70) और गुजरात (24.80 लाख) से ही 3.14 करोड़ नव वयस्क भारत के चुनावों में भूमिका निभाएंगे. आग्रह है कि इन नव-वयस्कों, जिन्हें लोकतंत्र और क़ानून की भाषा में मतदाता के रूप में परिभाषित किया जाता है, को उनकी पृष्ठभूमि और बीते हुए 18 सालों में उनकी खुद के जीवन में घटी हुई घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित किया जाना चाहिए. एक बेहतर, स्वस्थ और चैतन्य जीवन के लिए जीवन के शुरूआती घंटों से लेकर पहले 5 सालों के बाल विकास को सबसे अहम माना जाता है, क्योंकि इसी उम्र तक जीवन की नीव डालने वाला 90 प्रतिशत विकास हो जाता है. यदि इसके नुकसान पंहुचे, तो यह ऐसा नुकसान होता है, जिसकी मरम्मत नहीं हो सकती है. जो बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं, उनकी शिक्षा, क्षमता, स्वास्थ्य, सबकुछ गहरे तक प्रभावित होता है. आज जिन्हें हम मतदाता कहेंगे, उनके जीवन के पहले पांच सालों के संघर्ष का संज्ञान लेना बहुत जरूरी है.
कुपोषित नागरिकता
द लांसेट (स्वास्थ्य विषय की शोध पत्रिका) ने वर्ष 2008 में मातृत्व और बाल कुपोषण पर शोधपत्रों की एक श्रृंखला प्रकाशित की थी. इनमें एक शोध पत्र (मैटरनल एंड चाइल्ड अंडरन्यूट्रिशन : ग्लोबल एंड रीजनल एक्स्पोज़र एंड हेल्थ कान्सीक्वेन्सेस) में यह बताया गया कि उम्र के मान से वजन जितना कम (Underweight) रहता है, डायरिया, निमोनिया, मलेरिया और खसरे के संक्रमण और उससे बच्चे की मृत्यु का जोखिम भी उतना ही ज्यादा होता है.
अध्ययन बताता है कि यदि बच्चा अति कम वज़न का हो तो डायरिया के कारण उसकी मृत्यु की आशंका 1.6 से 17.9 गुना और अति गंभीर अपक्षय (लम्बाई/ऊंचाई के मान से कम वज़न – Severe Wasting) होने की स्थिति में इन बीमारियों से मृत्यु की आशंका 1.6 से 16.8 गुना ज्यादा होती है. कुपोषण के कारण बच्चों की शिक्षा हासिल करने, श्रम करने और बीमारियों से लड़ने की क्षमता सीमित हो जाती है. इन परिवारों में पहले से गरीबी का गहरा चक्र व्याप्त रहता है और ऐसे में कुपोषण उन्हें गरीबी के बाहर निकलने से रोकता है. अतः ऐसे में अनिवार्यता होती है कि सरकार और राजनीतिक व्यवस्था बच्चों को कुपोषण से बाहर निकालने की नीति बनाए ताकि असमानता और गरीबी के कुचक्र को तोड़ा जा सके.
वर्ष 2000-01 की स्थिति में भारत में 47.0 प्रतिशत बच्चे कम वज़न (Underweight), 45.5 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन (Stunted) और 21 प्रतिशत बच्चे अपक्षय कुपोषण (Wasted) की गिरफ्त में थे. इन वर्षों में जन्म लेने वाले 5.26 करोड़ बच्चे अब भारतीय लोकतंत्र में निर्णायक की भूमिका में आयेंगे. यह आयु समूह दुनिया में सबसे गंभीर स्थिति की श्रेणी में शुमार रहा है. वर्ष 2018-19 में 21 वीं सदी का पहला सूरज देखने वाले सवा पांच करोड़ बच्चे अब मतदाता बनकर लोकतंत्र से जुड़ेंगे, किन्तु यह ध्यान रखना होगा कि इनमें से 2.47 करोड़ बच्चे कम वज़न के, 2.39 करोड़ बच्चे ठिगनेपन के और 81.55 लाख बच्चे अपक्षय कुपोषण के शिकार रहे. जिनके सामने बीमारियों, पारिवारिक गरीबी, शिक्षा के सीमित अवसर और अपने संसाधनों से विस्थापन की गंभीर चुनौतियां रही हैं.
आज जब हम विधानसभा और लोकसभा चुनावों की प्रक्रिया में प्रवेश कर रहे हैं, तब राजनीतिक दलों, विश्लेषकों से रणनीतिकारों से यह स्वाभाविक अपेक्षा की जाती है कि वे बच्चों के कुपोषण को विकास और बेहतर भविष्य के लिए एक अनिवार्य राजनीतिक-आर्थिक मुद्दे के रूप में इसे केंद्र में रहें. पर वे इसे नज़रंदाज़ करते हैं. अब चूंकि बहुत से शोध आधारित खुलासे होने लगे हैं, इसलिए राजनीतिक दल भूल-भुलावे वाले राजनीतिक वक्तव्यों में नमूने के तौर पर “कुपोषण” शब्द का इस्तेमाल जरूर कर लेते हैं; पर यह कड़वी सच्चाई है कि उनके पास कुपोषण से निपटने और इससे जूझने की कोई अपनी कार्ययोजना नहीं है. यह काम अंतर्राष्ट्रीय, कारपोरेट और विशेषज्ञ संस्थाओं के हवाले कर दिया गया है, जो अपने मुनाफे और संसाधनों पर नियंत्रण के हितों को साधने की कोशिश में जुटे रहते हैं.
भारत की राजनीतिक व्यवस्था भी बच्चों के प्रति असंवेदनशील और गैर-जवाबदेय रही है. वर्ष 1998-99 में भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-दूसरा चक्र) से वर्ष 2015-16 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-चार) के बीच कम वजन के कुपोषण में केवल 11 प्रतिशत की कमी (47 प्रतिशत से 35.8 प्रतिशत) आई है, जबकि ठिगनेपन के कुपोषण में केवल 7.1 प्रतिशत की और अपक्षय कुपोषण में 5.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इन 18 सालों में भारत में आर्थिक विकास की दर 5 प्रतिशत से 8 प्रतिशत के बीच रही है, किन्तु कुपोषण में कमी की दर क्रमशः 0.55 प्रतिशत और 0.35 प्रतिशत रही है. अर्थ बहुत स्पष्ट है कि आर्थिक विकास की नीतियों और योजनाओं का मकसद बच्चों को कुपोषण से बाहर लाकर नयी पीढ़ी को सजग और सचेत बनाना नहीं रहा है. विधानसभा चुनावों की बेला में मध्यप्रदेश में 42.8 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 37.7 प्रतिशत और राजस्थान में 36.7 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के कुपोषण से ग्रस्त हैं. इन बीस सालों में भारत सहित, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपक्षय कुपोषण बढ़ा है. गंभीर अपक्षय कुपोषण बच्चों में गंभीर संक्रमण, बेहद कमज़ोर प्रतिरोधक क्षमता और मानसिक विकास में अवरोध का मुख्य कारण बंटा है. यह बाल मृत्यु का भी एक बहुत बड़ा कारण है.
इसी क्रम में हम भारत के बच्चों में खून की कमी के विषय पर नज़र भी डाल सकते हैं. वर्ष 2000-01 में 74.3 प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार थे. एनीमिया के कारण बच्चों की एकाग्रता पर गहरा असर पड़ता है, वे थक जाते हैं, उनकी शारीरिक-मानसिक सक्रियता कम होती है. एनएफएचएस-चार के मुताबिक भारत में 58.6 प्रतिशत बच्चे एनीमिया के शिकार हैं. जिस वक्त मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव अभियान का शोर मच रहा है, उस वक्त भी यह विषय चर्चा से बाहर है कि अभी की स्थिति में मध्यप्रदेश में 68.9 प्रतिशत, राजस्थान में 60.3 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 41.6 प्रतिशत बच्चे एनीमिया के शिकार हैं.
मां का दूध पिया है क्या?
आज़ाद भारत में नवजात शिशु को सबसे पहला पाठ भूख के साथ जीवन जीने का ही सिखाया जाता है. जब भूख आदत बन जाए, तब लोकतंत्र के सिद्धांत कैसे याद रहेंगे? भारतीय परंपरा से लेकर भारतीय सिनेमा में माँ के दूध यानी कि स्तनपान को बहुत प्रभावकारी और अहम् माना गया है. बच्चे को जन्म के बाद तत्काल स्तनपान कराने से गर्भाशय जल्दी सिकुड़ता है और आंवल को बाहर लाने में मदद करता है, जिससे भारी खून का बहाव रुकता है. यह बच्चे की आँतों की सफाई करता है और उसे गंभीर संक्रमण से बचाता है. केवल स्तनपान (Exclusive Breastfeeding) अकेला 20 प्रतिशत बाल मृत्यु कम कर सकता है और मातृत्व मृत्यु के जोखिम को भी कम करता है. 21वीं सदी में जन्म लेने वाली पीढ़ी को हम माँ का दूध भी उपलब्ध नहीं करवा पाये हैं. मानक यह है कि जन्म के बाद के छः महीनों तक बच्चे को केवल और केवल माँ का दूध दिया जाना चाहिए. यह एक शर्मनाक स्थिति है कि वर्ष 2000 और 2018 की स्थिति में हम कोई खास बदलाव नहीं ला पाये.
वर्ष 1998-99 के एनएफएचएस-दो के निष्कर्षों के मुताबिक उस वक्त शिशुओं को तीन माह तक केवल स्तनपान (Exclusive Breastfeeding) कराने पर ध्यान दिया जाता था, जो बाद में छः माह हुआ. इन मानकों को ध्यान में रखकर उपलब्ध कराये गए आंकड़ों के आंकलन से पता चलता है कि वर्ष 1998-99 में भारत में 55.2 प्रतिशत बच्चों को जन्म के बाद के महीनों में केवल माँ का दूध दिया जा रहा था, जो वर्ष 2015-16 की स्थिति में कुछ घटकर 54.9 प्रतिशत हो गया. मध्यप्रदेश में केवल स्तनपान का व्यवहार 64.2प्रतिशत से घटकर 58.2 प्रतिशत पर आ गया. राजस्थान में यह स्तर 53.7 प्रतिशत से बढ़कर 58.2 प्रतिशत हुआ. छत्तीसगढ़ में 64.2 प्रतिशत से बढ़कर 77.2 प्रतिशत हुआ. स्तनपान की कमी के कारण करोड़ों बच्चे बीमार पड़ते हैं, विकलांगता के शिकार होते हैं और परिवार स्वास्थ्य व्यय के कारण गरीबी में धकेला जाता है. भारतीय राजनीति अभी इतनी संवेदनशील नहीं हुई है कि वह मज़हबी मुद्दों की तुलना में ऐसे विषयों को महत्व दे, जिनसे समाज में स्वास्थ्य, खुशहाली और वास्तविक सम्पन्नता की स्थापना हो. आज जो नागरिक लोकतंत्र के महोत्सव में दिया जलाएंगे, उनमें से आड़े नागरिकों को तो माँ का दूध भी नसीब नहीं होने दिया गया.
आज राजनीतिक दल और उनके प्रतिनिधि इस विषय पर इसलिए भी चुप रहते हैं, क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस जद्दोजहद में लगी हुई हैं कि स्तनपान के व्यवहार को खतम करवाया जाए, जिससे वे डिब्बाबंद शिशु आहार बाज़ार में आसानी से बेच सकें.
छः माह की उम्र हासिल करते ही बच्चे को ऊपरी आहार दिया जाना जरूरी है ताकि उसे अपने मासिक और शारीरिक विकास के लिए जरूरी ऊर्जा और पोषण मिल सके. इस पर सरकार आजकल विज्ञापन तो खूब करती है, किन्तु यह समझने की कोशिश नहीं करती कि किन कारणों से बच्चों को ऊपरी आहार नहीं मिल पाता है. 21वीं सदी में आधे से ज्यादा बच्चे भूख के साथ ही जीते हैं और भीख से साथ ही उनका विकास होता है. ऐसे बच्चे शिक्षा में रचनात्मक और बदलावकारी काम नहीं कर पाते हैं. इनकी श्रम करने की क्षमता सीमित हो जाती है.
इस सदी की शुरुआत में जन्म लेने वाले 33.5 प्रतिशत बच्चों को ही माँ के दूध के साथ ऊपरी आहार मिल रहा था. 20 साल में इसमें केवल 9.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई. मध्यप्रदेश में वर्ष 1998-99 में 27.3 प्रतिशत बच्चों को ऊपरी आहार समय पर मिल रहा था, यह संख्या वर्ष 2016 में बढ़कर 38 प्रतिशत ही हो पायी. इसी तरह राजस्थान में यह संख्या 17.5 प्रतिशत से बढ़कर 30.1 प्रतिशत हुई.
लोकतंत्र में मतदाता की बहुत अहम् भूमिका होती है, लेकिन उसे यह भूमिका निभाने के लिए जरूरी ताकत और क्षमता हासिल ही नहीं करने दी गई. यह कहना गलत नहीं होगा कि आज राजनीतिक दल जिस तरह से गैर-जरूरी मुद्दों को केंद्र में रखकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया चला पा रहे हैं, उसमें एक बड़ा कारण बच्चों का कमज़ोर विकास भी है. लोकतंत्र को स्वस्थ बनाने और समता मूलक समाज की स्थापना के लिए एक बुनियादी और अपरिहार्य शर्त है कि महिलाओं और नवजात शिशु के जीवन को पूरा पोषण, देखरेख और संरक्षण मिले. इसके बिना लोकतंत्र बनाए रखने की हर कोशिश आधी बेईमान कोशिश होगी.
(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)