डियर जिंदगी : प्रेम किसी का दुश्‍मन नहीं, बस नजर 'नई' हो...
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डियर जिंदगी : प्रेम किसी का दुश्‍मन नहीं, बस नजर 'नई' हो...

समय के पास हर जख्‍म का इलाज नहीं है, यह उपचार बस प्रेम के पास है.

उन्‍होंने जीवन की सारी कमाई इकलौते बेटे के स्‍टार्टअप के नाम कर दी. कुछ नहीं छोड़ा, न सेविंग्स, न पीएफ, न मकान. तीन बरस बाद बेटे की कंपनी दौड़ पड़ी. अब नोएडा में शानदार ज़िंदगी जी रहे हैं, बेटे के साथ. पत्‍नी नहीं हैं, वह बेटे के जन्‍म के कुछ बरस बाद ही गंभीर बीमारी से चल बसीं थीं. इसलिए, पिता ने बेटे को पूरी तरह मां बनकर पाला. दोनों दोस्‍तों की तरह रहे. ज़िंदगी मज़े में गुज़र रही थी. अचानक एक स्‍पीड ब्रेकर आ गया. 

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ब्रेकर हमेशा ब्रेकर की शक्‍ल में नहीं आता. कई बार प्रेम के वेष में भी आता है. इस कहानी में भी ऐसा ही हुआ. पिता ने बेटे के लिए उसकी जाति, गोत्र के अनुरुप कन्‍या चुन रखी थी, लेकिन इस 'स्‍टार्टअप' के मुश्किल की दौर में प्रेम के बीज पड़ गए, जिसमें जाति के अतिरिक्‍त कोई कमी न थी. 

पिता-पुत्र के बीच बहस, तर्क से शुरू हुए संवाद का सिलसिला अचानक मौन में बदल गया. उनके बीच का अबोला होते-होते गहरे, दुखदाई मौन में चला गया. इसके बाद भी बेटे में पिता के प्रति गहरी आस्‍था थी. पिता तो पिता हैं. बेटे को तो उन्‍होंने पाला पोसा भर नहीं था, बल्कि उसे अपने परिश्रम और प्रेम से सींच कर फलदायी बनाया था.

बेटा एक दिन बहू के साथ घर आ गया. पिता ने बहू के प्रति यथासंभव प्रेम प्र‍दर्शित किया, लेकिन वह सहज नहीं थे दोनों के प्रति. घर में चौथा कोई नहीं था, जो पुल का काम करता. रिश्‍तों के पुल में कई बार संबंधों का इंजीनियर न होने से दरार आ जाती है. बहू ने अपनी ओर से इस संबंध को संभालने की पूरी कोशिश की, लेकिन समस्‍या वह नहीं बल्कि पिता-पुत्र के बीच आई दरार थी, जो किसी भी तरह कम होने का नाम नहीं ले रही थी. 

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यह एक मुश्किल समय था, लेकिन इसी बीच एक दिन घर में कुछ खोजते हुए उसे एक दस्‍तावेज़ मिला. जिसने उसे, उसके पति को इतना भावुक कर दिया कि अगले कई घंटे उनकी आंखें नम रहीं. बमुश्किल कुछ सुझ रहा था, वह अपराध बोध से भर गए. उन्‍हें लगा कि पि‍ता के प्रति प्रेम में कुछ कमी रह गई है. उन्‍होंने नाराज़गी को समय पर छोड़ दिया था, जबकि समय के पास हर जख्‍म का इलाज नही होता...

बहू को जो दस्‍तावेज़ मिले. वह इस प्रकार थे... पिता ने ऋषिकेश के एक आश्रम में अपने लिए बुकिंग करा ली थी. वह शीघ्र ही वहां जाने की तैयारी में थे, क्‍योंकि उनके कुछ मित्रों को उनके यहां असहमति से हुए विवाह के बाद ऐसे ही दिन देखने पड़े थे. उन्‍हें जबरन भेजा गया था, जबकि उन्होंने तो विरोध भी नहीं किया था. दूसरी ओर वह इस विवाह के विरुद्ध एक बड़ी दीवार थे. 

बेटा-बहू दोनों ने ऋषिकेश जाने का फ़ैसला किया. उसी आश्रम में जहां पिता जाने की तैयारी में थे. पिता से यह कहकर कि वह कुछ दिन के लिए बाहर जा रहे हैं. पिता ने सोचा चलो अच्‍छा हुआ, जाते समय असानी रहेगी. तय समय पर पिता वहां पहुंच गए. दिनभर किसी तरह रहे, ख़ुद को वहां के नियम कायदों के लिए तैयार किया. लेकिन ऐसा आदमी जिसने अब सारी ज़िंदगी अपने दम पर आज़ादी के साथ बिताई हो, उसे दूसरे 'आंगन' में चैन कहां मिलता. लेकिन वह बेटे के फ़ैसले से बेहद नाराज़ थे, कि कभी-कभी उनको भी आश्‍चर्य होता कि अपने ही बेटे से इतनी नाराज़गी, लेकिन ठीक इसी समय उनकी अपेक्षा, बेटे से रखी गई उम्‍मीद, पूर्वाग्रह बनकर माफ़ी के आड़े आ जाती. वह बेटे को क्षमा नहीं कर पाते. जबकि बेटे ने ऐसी कोई ग़लती नहीं की थी, यह तो बस एक फ़ैसला था, जिसमें उनकी रज़ामंदी न थी. 

किसी तरह रात कटी. अगले दिन सुबह-सुबह किसी पहचानी आवाज़ ने दरवाज़े पर दस्‍तक दी. चाय, अरे! यह तो बहू की आवाज़ है. अगले ही पल उन्‍होंने खारिज कर दिया. वह क्‍यों आएगी! जब बेटे ने ही मान न रखा तो बहू क्‍यों उनकी चिंता में घुलने लगी. मैं भी क्‍या सोचने लगता हूं, ये आजकल के बच्‍चे हैं, एक हम थे... इस बीच फि‍र दस्‍तक हुई. दरवाज़ा खुला, लेकिन बंद न हो सका. दरवाज़ा बंद होना ही नहीं चाहता था. हो ही नहीं सकता था. बाहर बेटा-बहू थे, उस काग़ज़ की फ़ोटोकॉपी के साथ, जिसमें यहां आने का पता था. 

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तीनों की आंखों से जो आंसू बहे, उसने उन दीवारों, दरवाज़ो को हमेशा के लिए गिरा दिया.. जो पिता-पुत्र के बीच बस एक फ़ैसले के कारण आ गई थी. बहू ने कहा, अब हम यहीं रहेंगे. वह घर जो आपने मेरे लिए छोड़ा, उसे मैंने आपके लिए छोड़ दिया, क्‍योंकि उसने आपको मुझसे छीन लिया था. बहू के इन शब्‍दों के बाद वहां कोई संवाद नहीं हुआ. उसके लिए वहां कोई जगह ही नहीं बची थी. वहां सब ओर बस प्रेम पसरा हुआ था. प्रेम आश्रम के रोम-रोम में समा गया था.  

मुझे आपका नहीं पता, आप इसे पढ़ते हुए कैसे हैं, लेकिन आश्रम में जो कोई भी इस समय का साक्षी बना, उसकी आंखों में नमी, चेहरे पर मुस्‍कान थी. गहरा अनुराग था, जीवन और रिश्‍तों के प्रति. पिछले दिनों मैं ऋषिकेश में था, वहीं पर 'डियर ज़िंदगी' को यह अनूठी प्रेम कहानी मिली. अगर आपके पास भी ऐसी प्रेरक, ज़िंदगी से भरपूर कहानी है, तो मेरे फेसबुक पेज ( https://www.facebook.com/dayashankar.mishra.54) पर आकर इनबॉक्‍स में साझा करें. 

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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