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नई दिल्ली. देश की राजधानी दिल्ली में स्थित लालकिला, जहां हर साल 15 अगस्त पर प्रधानमंत्री तिरंगा झंड़ा फहराते हैं. उस लालकिले को लेकर हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट में एक महिला ने अर्जी दाखिल की है, जिसमें दावा किया है कि दिल्ली के लाल किले पर उनका मालिकाना हक है. ये दावा करने वाली महिला आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की प्रपौत्र वधु सुल्ताना बेगम है. जो आज कल कोलकाता के पास एक झुग्गी बस्ती में बड़ी गुरबत में अपने दिन बिता रही हैं.
सुल्ताना बेगम के मुताबिक अंग्रेजों ने धोखे से लाल किले को मुगलों से हड़प लिया था और फिर ये विभाजन के बाद भारत सरकार के पास चला गया. अब सुल्ताना बेगम मुगलों की आखिरी वंशज होने के नाते लाल किले को वापस लेना चाहती हैं.
68 साल की सुल्ताना बेगम आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की प्रपौत्र वधु (Great Grand Daughter in Law) हैं. यानी सुल्ताना बेगम बहादुर शाह जफर के पुत्र के पुत्र के पुत्र की पत्नी हैं. माना जाता है कि बहादुर शाह जफर की कुल चार पत्नियां थीं, जिनसे उन्होंने 22 बेटों और कम से कम 32 बेटियों को जन्म दिया. इनमें जो बेटा उन्हें सबसे ज्यादा प्यारा था और जिसे वो अगला मुगल बादशाह बनाना चाहते थे, उसका नाम था, जवां बख्त. जवां बख्च की शादी साल 1852 में हुई थी और उनके एक पुत्र का नाम जमशेद बख्त था. जिनकी बाद में कई संतान हुईं और इन्हीं में से एक पुत्र का नाम था मिर्जा मोहम्मद बेदार बख्त. सुल्ताना बेगम उन्हीं की पत्नी थीं. हालांकि मिर्जा मोहम्मद बेदार बख्त की मृत्यु साल 1980 में ही हो गई थी. इसके बाद सुल्ताना बेगम ने कई मौकों पर खुद को मुगलों का कानूनी वारिस बताया. दिल्ली हाई कोर्ट में जो याचिका दायर की गई, उसमें भी इस बात का जिक्र है.
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इस याचिका में कोर्ट से अनुरोध किया गया था कि मुगलों की वंशज होने के नाते दिल्ली के लाल किले का मालिकाना हक उन्हें मिलना चाहिए. इस याचिका में उन्होंने कहा है कि अविभाजित भारत में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवैध तरीके से लाल किले को अपने कब्जे में ले लिया था. विभाजन के बाद ये राष्ट्रीय धरोहर भारत सरकार के पास चली गई. लेकिन असल में इस धरोहर पर मालिकाना हक उनका है.
लेकिन कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया. कोर्ट ने सुल्ताना बेगम के वकील से ये भी पूछा कि 150 साल से सुल्ताना बेगम और उनके दूसरे वंशज कहां थे? अगर 150 साल तक वो गायब रहे तो अब लाल किले पर मालिकाना हक जताने का कोई औचित्य नहीं है.
आपको बता दें, दिल्ली में लाल किले का निर्माण साल 1638 में पांचवें मुगल शासक शाहजहां ने करवाया था. करीब 10 साल में बनकर तैयार हुई इस धरोहर का मकसद मुगलों की राजधानी को आगरा से दिल्ली शिफ्ट करना था. शाहजहां वही मुगल शासक था, जिसने ताज महल का भी निर्माण कराया. इसके अलावा एक दिलचस्प जानकारी ये है कि ताजमहल और लाल किला दोनों एक ही साल 1648 में बनकर तैयार हुए थे. हालांकि ताजमहल लाल किले से 7 साल पहले 1631 में बनना शुरू हुआ था.
शाहजहां से पहले बाबर, हुमायूं, अकबर और जहांगीर ने आगरा को ही अपनी राजधानी माना था. लेकिन शाहजहां के बादशाह बनने के बाद इस परम्परा को बदला गया और मुगलों की शासन नीति दिल्ली के लाल किला से कंट्रोल होने लगी. शाहजहां ने मुगलों की राजधानी आगरा से दिल्ली इसलिए शिफ्ट की, क्योंकि उसे आगरा की सड़कें संकरी लगती थी और वहां पानी की समस्या काफी ज्यादा थी. जब मुगल शासकों का काफिला सड़कों से निकलता था, तो इससे उन्हें काफी परेशानी होती थी.
शाहजहां के बाद दिल्ली की ये गद्दी औरंगजेब को मिली. लेकिन उसके बाद मुगलों की विरासत भारत में तेजी से बिखरने लगी. इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि शुरुआत में 181 साल में केवल 6 मुगल बादशाह ही शासन में आए थे. लेकिन 1707 के बाद अगले 100 साल में एक के बाद एक 20 से 25 मुगल शासक आए और चले गए. बहादुर शाह जफर इनमें आखिरी शासक थे, जिनकी सरकार दिल्ली के लाल किले से चलती थी. इसी आधार पर सुल्तान बेगम का मानना है कि लाल किले पर उनका मालिकाना हक बनता है.
हालांकि सुल्ताना बेगम के इस दावे को समझने के लिए आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को भी समझना होगा. बहादुर शाह जफर, अकबर शाह द्वितीय की संतान थे. वो कभी भी बहादुर शाह जफर को मुगल बादशाह नहीं बनाना चाहते थे. क्योंकि बहादुर शाह जफर का ध्यान शासन से ज्यादा शेरों शायरी पर था. उनका मन गजलों में ही लगा रहता था. इसलिए अकबर शाह द्वितीय चाहते थे कि दिल्ली की गद्दी उनके दूसरे बेटे मिर्जा जहांगीर को मिले. इसका ऐलान लगभग हो चुका था. लेकिन एक दिन मिर्जा जहांगीर ने दिल्ली के इसी लाल किले में एक अंग्रेजी अफसर पर हाथ उठा दिया और उसके बाद ब्रिटिश हुकूमत पूरी तरह उसके खिलाफ हो गई. इस विरोध का नतीजा ये हुआ कि बहादुर शाह जफर ना चाहते हुए भी मुगल शासक बन गए. यानी वो Accidental मुगल बादशाह बने थे.
शायद इसी वजह से शासन व्यवस्था और सैन्य रणनीति में उनकी बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी. उनके दरबार में सिपाहियों और सेनापतियों से ज्यादा शायर हुए करते थे. इसकी बड़ी वजह अंग्रेजी सरकार भी थी. बहादुर शाह जफर मुगल बादशाह तो थे, लेकिन उनका शासन सिर्फ नाम मात्र के लिए था. उनकी सत्ता दिल्ली से केवल पालम तक सिमट कर रह गई थी. शाह आलम द्वितीय के बाद ही बहादुर शाह जफर के पिता अकबर शाह द्वितीय दिल्ली की गद्दी पर बैठे और फिर उनके पुत्र बहादुर शाह जफर का शासन आया. उस समय उनके दरबार में दो बड़े और मशहूर शायर हुआ करते थे. एक थे इब्राहिम जौक और दूसरे थे मिर्जा गालिब.
वैसे तो बहादुर शाह जफर ने अपने शासन का अधिकतर समय सैनिकों की जगह शायरों के साथ बिताया. लेकिन 1857 का विद्रोह उनके लिए एक बड़ी चुनौती बन कर आया. साल 1856 में ब्रिटिश सरकार ने तय किया था कि बहादुर शाह जफर आखिरी मुगल बादशाह होंगे. उन्हें लाल किले से भी बेदखल कर दिया जाएगा. इसके बाद वर्ष 1857 में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ जो विद्रोह मेरठ से शुरू हुआ, वो धीरे-धीरे देश के दूसरे हिस्सों में पहुंचने लगा. इस विद्रोह के दौरान 10 मई 1857 को मेरठ के कुछ सिपाहियों की टुकड़ियां घोड़ों पर सवार होकर दिल्ली पहुंच गईं. इसके बाद बहादुर शाह जफर को उन्होंने अपना नेता घोषित कर दिया.
बहादुर शाह जफर पहले तो इसके खिलाफ थे, लेकिन बाद में उन्हें ऐसा लगा कि शायद इस विद्रोह से वो मुगलों को उनकी खोई हुई पहचान और ताकत दिला सकते हैं. उन्होंने देशभर के राजाओं और शासकों को चिट्ठी लिख कर अंग्रेजों से लड़ने के लिए एक संघ बनाने का आह्वान किया. हालांकि इस लड़ाई में वो हार गए और सितम्बर 1857 को अंग्रेजों ने लाल किले पर कब्जा कर लिया.
हैरानी की बात ये है कि बहादुर शाह जफर उस समय काफी डरे हुए थे और अपने खास दरबारियों के साथ उन्होंने दिल्ली के ही हुमायूं के मकबरे में शरण ले ली थी. मुगल शासक हुमायूं को भी कभी ऐसे ही तख्ततृ से बेदखल होकर दर-दर भटकना पड़ा था. लेकिन जफर ना तो हुमायूं थे और ना ही ये तब का हिन्दुस्तान था. अंग्रेजों ने जब मकबरे को चारों तरफ से घेर लिया तो बहादुर शाह जफर ने आत्मसमर्पण करने में ही अपनी भलाई समझी. दिल्ली पर कब्जे के बाद अंग्रेजों ने बहादुर शाह के तीन बेटों की गोली मार कर हत्या कर दी. जफर पर राजद्रोह का मुकदमा चला कर बर्मा की रंगून जेल में भेज दिया गया, जिसे आज म्यांमार कहा जाता है. इस जेल में 5 साल गुजारने के बाद 7 नवंबर, 1862 को गले में लकवा पड़ने से बहादुर शाह जफर की मौत हो गई.
आज आपको ऐसी सैकड़ों पुस्तकें पढ़ने को मिल जाएंगी, जिनमें मुगल शासकों की अकूत धन दौलत का जिक्र है, जिसे उन्होंने भारत को लूट कर खड़ा किया था. लेकिन ये भी सच है कि आज उन्हीं मुगलों के वंशज, भारत में दयनीय स्थिति में जीवन यापन कर रहे हैं. सुल्ताना बेगम भी उन्हीं में से एक हैं. सुल्ताना बेगम कोलकाता के पास एक झुग्गी बस्ती में स्थित 6 बाई 8 के कमरे में रहती हैं. यानी उनका जीवन कब्र जितनी जगह में बीत रहा है. ऐसा कहा जाता है कि भारत में जब मुगल शासक लोगों पर अत्याचार कर रहे थे, तब उन्हें कई श्राप दिए गए. उन्हें कहा गया कि उनका वंश कभी पनप नहीं पाएगा और हमेशा संकटों से घिरा रहेगा. आज लगता है कि ये बातें जैसे सच हैं.
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अंग्रेजों की तरह मुगल शासक भी दूसरे देश से भारत में आए थे. लेकिन आज भारत में मुगलों के वंशज मिल जाएंगे, लेकिन अंग्रेजों के वंशज नहीं मिलेंगे. ऐसा इसलिए है क्योंकि अंग्रेज किसी भी देश को अपना गुलाम बनाते थे और मुगल किसी भी देश में खुद को स्थापित कर लेना चाहते थे. लेकिन भारत एक ऐसा देश है, जो हजारों साल से सहनशील रहा है. मुगलों ने भले भारत के लाखों हिन्दुओं पर अत्याचार किए, हिन्दू होने पर लोगों से धर्म के आधार पर टैक्स वसूला गया. लेकिन भारत ने कभी भी उनके वंशजों को अपनाने से इनकार नहीं किया. आज भी इस देश में मुगल शासकों के नाम पर 700 से ज्यादा स्थानों के नाम हैं. राष्ट्रपति भवन में मुगल गार्डन हैं.
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