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आगरा, उत्तरप्रदेश से ‘डियर जिंदगी’ के बुजुर्ग ने भावुक अनुभव साझा किया है. इस संदेश में सवाल, सरोकार, चिंता के साथ अकेलेपन की पीड़ा शामिल है. सुरेश कुलश्रेष्ठ का अनुरोध है कि इसे इनके नाम, परिचय के साथ प्रकाशित किया जाए. सुरेश जी चाहते हैं कि जो उनके साथ हुआ उनके किसी हमउम्र के साथ न हो!
दो साल पहले वह सरकारी सेवा से रिटायर हुए. दो बच्चे हैं. बिटिया विदेश में है. वह सपरिवार वहां बस गई है. बेटा, उसकी पत्नी उनके साथ ही रहते हैं. दोनों सरकारी कंपनी में काम करते हैं. अक्सर सुबह जल्दी निकलते, देर रात को घर आते हैं. उनका रविवार और छुट्टी का दिन भी सुरेश जी के हिस्से कम ही आता है. सुरेश जी की पत्नी का देहांत कई बरस पहले हो चुका है. वह अपने पिता की इकलौती संतान हैं, इसलिए संयुक्त परिवार के लाभ से पूरी तरह वंचित हैं. घर-परिवार में दो से अधिक सहायक हैं. हर काम चुटकी बजाते हो जाता है.
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रिटायरमेंट के कुछ समय बाद तक सब ठीक रहा. कुछ महीने दोस्तों के साथ घूमने-फिरने, रिश्तेदारों के यहां भ्रमण में बीते. उसके बाद से सुरेश जी को अकेलापन सताने लगा.
सेंट्रल सर्विसेज में होने के कारण उन्हें देश के अलग-अलग हिस्से में रहने का मौका मिला. लेकिन इसका एक नुकसान यह होता है कि किसी शहर में आपका ठिकाना नहीं होता. रिटायर होने के कुछ समय बाद ही वह अपने मूल शहर जोधपुर लौटना चाहते थे. आगरा में बसने का फैसला केवल बेटे की नौकरी के कारण हुआ. इस शहर में बहुत कम लोगों से वह परिचित थे. ऐसे बुजुर्ग जो ऐसी नौकरियों में रहते हैं, जिनमें अनेक शहरों में रहना हो, उनके साथ रिटायरमेंट के समय शहर चुनने की समस्या आती है.
एक दशक पहले तक रिटायरमेंट के बाद रहने के लिए अपने शहर, गांव के चुनाव को लोग अहमियत देते थे. अब यह बदलने लगा है. इसमें शहर में मौजूद सुविधा के साथ बच्चों की पसंद निर्णायक भूमिका निभा रही है.
बुजुर्गों की पसंद, शहर में उनके परिचितों की मौजूदगी जैसी बुनियादी बातों को अनदेखा किया जा रहा है. इससे ऐसे बुजुर्ग जो अपने जीवनसाथी से किसी भी कारण अलग हैं, आसानी से अकेलेपन की ओर बढ़ रहे हैं. उनसे बात करने के लिए किसी के पास समय नहीं. समय से अधिक बात संवेदनशीलता की है!
सुरेश जी अकेलेपन की ओर बढ़ ही रहे थे कि किसी ने सोशल मीडिया पर आने की सलाह दी. सलाह काम कर गई! फेसबुक ने कुछ ही दिन में खूब सारे लोगों को मिला दिया. बिछड़े लोग मिलने लगे.
इसी दौरान उनको एक ऐसी फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट मिली, जो किसी परिचित की नहीं थी, लेकिन उनके शहर से ही थी.
कुछ दिन तक उन्होंने इसे अनदेखा किया, लेकिन भेजने वाले ने हार नहीं मानी. कई बार अनुरोध भेजा गया. उन्हें लगा, चलो देखते हैं. कोई पैसे थोड़ी लग रहे हैं! यही सोच बाद में उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल साबित हुई.
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कुछ ही दिन में फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेजने वाली महिला ने उनसे फोन नंबर हासिल किया. उसके बाद उनसे नियमित अंतराल पर बात होने लगी. सुरेश जी का अकेलापन बंटने लगा.
यह बातचीत उनकी जिंदगी, अनुभव और समाज के विभिन्न क्षेत्रों के बारे में होती थी. करीब छह महीने तक चले इस संवाद ने इतनी घनिष्ठता हासिल कर ली कि हर दिन उन्हें इस कॉल का इंतज़ार रहने लगा. बातचीत, अकेलापन बांटने, एक-दूसरे के साथ रहने के साथ ही ऐसे विषयों पर होती जो विशुद्ध रूप से पारिवारिक हैं.
सुरेश जी को इस संवाद से एक किस्म की ऊर्जा मिलने लगी. उन्हें लगता कोई तो है जिसे उनके हिस्से की धूप-छांव की भी चिंता है. जिसका कोई स्वार्थ नहीं. जिंदगी मज़े में चल रही थी. हां, एक बात जरूर हुई कि उन्हें अब बेटे की ओर से घटता समय परेशान नहीं करता था.
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सुख-दुख बांटने का सिलसिला चल ही रहा था कि एक दिन सुरेश जी से एक लाख रुपये की गुजारिश मेडिकल इमरजेंसी के नाम पर की गई. अनुरोध, प्रशंसा की चाशनी में इतनी चतुराई से घुला था कि मना करना संभव नहीं था. वैसे भी हम जानते हैं कि प्रशंसा की चाशनी में तो हर चीज घुलनशील है.
रकम दे दी गई. संवाद बिना रुकावट के रकम लौटाने के वादे याद दिलाने के बीच जारी रहा. कुछ महीने बाद उनसे इसी तरह से एक लाख रुपये की और मांग की गई. रमेश जी ने यह मांग भी पूरी कर दी.
रिटायरमेंट के बाद उनके पास लगभग तीस लाख का फंड था. बच्चों को उनके पैसे से कोई सरोकार नहीं था. ऐसे में उनके लिए यह रकम बड़ी तो थी, लेकिन इसके बिना उनकी जिंदगी में कोई रुकावट नहीं थी.
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लेकिन अचानक फोन आना बंद हो गया. अब सुरेश जी के लिए वक्त काटना मुश्किल हो गया. बार-बार संपर्क करने के बाद भी कोई उत्तर नहीं आ रहा था. एक दिन किसी तरह से बात हुई, तो उन्होंने उस महिला से बात करने की बात कही. दूसरी ओर से उन्हें बताया गया कि इसके लिए हर दिन उन्हें एक निश्चित रकम का भुगतान करना होगा, क्योंकि यह एक कंपनी है जो लोगों का अकेलापन दूर करने के लिए बनाई गई है.
सुरेश जी को इसकी लत लग चुकी थी. उन्होंने शर्त कबूल कर ली. दो महीने के लिए उन्होंने फिर तकरीबन लाख रुपये दिए. उसके बाद एक दिन उन्हें फोन करके कहा गया कि अगर उन्होंने पांच लाख रुपये नहीं दिए, तो पुलिस में उनके खिलाफ शिकायत कर दी जाएगी. उनकी रिकॉर्डिंग फेसबुक पर डाल दी जाएगी!
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अब कहीं जाकर सुरेश जी इनके मंसूबों को समझ पाए. वह बेहद परेशान हो गए. कुछ समझ नहीं आ रहा था. क्या करें! पुलिस के पास जाने पर सामाजिक रूप से प्रताड़ना का डर था.
लोग क्या कहेंगे. यह बात निरंतर परेशान कर रही थी. तभी संयोग से बिटिया का देश लौटना हो गया. हिम्मत करके उससे सारी बात बताई. बेटी ने उनको कहा, जिस समाज, बेटे-बहू के पास आपसे बात करने को फुर्सत नहीं, उससे डरने से कुछ नहीं होगा.
पुलिस के पास शिकायत दर्ज हुई. साइबर सेल ने बहुत जल्द इस मामले को हल कर लिया. पुलिस ने सुरेश जी के हौसले की सराहना की. पता चला कि यह गिरोह ऐसे बुजुर्गों को सोशल मीडिया से तलाश करता था, जो किसी भी तरह के अकेलेपन के शिकार हैं. उसके बाद उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा, परिवार की बदनामी के आधार पर ब्लैकमेल किया जाता था.
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सुरेश जी के हौसले को सलाम! जिंदगी गलती करके उसे ‘गैस चैंबर’ बनाने का नहीं, बल्कि उसे सुधारने का नाम है.
याद रखना होगा कि बड़ों के साथ संवाद बच्चों जितना ही अनिवार्य है, जिससे ऐसे हादसों को टाला जा सके.
रिटायरमेंट जिंदगी का थमना नहीं, बल्कि नई राह पकड़ना है. बहुत अधिक आर्थिक सोच, भावुकता के कारण इसे नकारात्मक बना दिया गया है. बुजुर्गों के प्रति अधिक संवेदनशील, रचनात्मक होने की जरूरत है.
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