शहर में हमारे घर आंगन एक दूसरे से इतने अलग और बंटे हुए हैं कि कब वहां सुख और दुख 'हमारे' ना होकर 'मेरे और तुम्हारे' में बदल जाते हैं, हम नहीं समझ पाते.
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जिनका बचपन गांव में बीता है, वह मिट्टी की महक, गमक से सुपरिचित हैं. उतने ही परिचित प्रकृति और मनुष्य से भी होते हैं. एक नजर में लोगों को देखना, पहचानना उनको सरलता से आने लगता है. गांव मुश्किल को सहने, विपरीत परिस्थिति में खड़े रहने की शिक्षा शहर की तुलना में कहीं बेहतर तरीके से देते हैं. वैसे हम में से हर कोई कभी न कभी गांव से ही शहर आया है. इस अर्थ में शहर हमारे लिए बहुत हद तक नई चीज़ है.
गांव का जीवन हमें परस्पर निर्भरता और मिलजुल कर रहने की आदत बहुत अच्छी तरह सिखाने में कामयाब रहा है. इसके बहुत सारे कारण हैं, लेकिन परिणाम मनुष्य को सरल और जीवन को स्नेहिल बनाए रखने के रूप में हमारे सामने है.
डियर जिंदगी: ‘ऐसा होता आया है’ से मुक्ति!
दूसरी ओर शहर की जरूरतें कुछ अलग तरह की हैं. शहर में रहने, टिकने और निरंतर बने रहने के लिए कुछ अलग तरह के प्रयास करने होते हैं. यह प्रयास कब व्यक्तिगत हित की सीमा लांघकर लालच और किसी तरह अपने हित पूरे करने में बदल जाता है हमें पता ही नहीं चलता.
शहर में हमारे घर, आंगन एक-दूसरे से इतने अलग और बंटे हुए हैं कि कब वहां सुख और दुख 'हमारे' न होकर 'मेरे और तुम्हारे' में बदल जाते हैं हम नहीं समझ पाते. ख्वाहिशों के जंगल हमारे भीतर इतने निर्मम तरीके से बनते हैं कि कोमलता के फूल कब मुरझा जाते हैं हमें पता ही नहीं चलता! इस तरह हमारे भीतर मिट्टी की जगह रेत लेने लगती है. रेत, जिसमें कुछ नहीं उगता. कुछ नहीं खिलता जिसकी कोई सुगंध नहीं. कोई अपनापन, स्नेह नहीं!
डियर जिंदगी: कुछ धीमा हो जाए...
मुझे कभी-कभी लगता है कि मिट्टी का उल्टा अगर कुछ है तो केवल रेत ही है. इस तरह अपने होने को थोड़ा ठहर कर संभल कर देखें, तो पाएंगे कि हमारे अंदर की बनावट कुछ कुछ बदलने लगी है. हम एक-दूसरे से मिले प्रेम को बहुत जल्दी भूल जाते हैं. स्नेह की डोर में एक गठान पड़ी नहीं कि हम जिंदगी की पतंग को ही दूसरी दिशा में उड़ाने लगते हैं.
संबंधों का दायरा शादी-ब्याह, उत्सव में तो बहुत बड़ा नजर आता है, लेकिन असल में वह अपनी गहराई, आत्मीयता खोता जा रहा है.
डियर जिंदगी: मन को मत जलाइए, कह दीजिए !
मध्य प्रदेश के सागर से निरंजन दुबे ने लिखा है कि उन्होंने अपने भाइयों की परवरिश में यथासंभव पिता का साथ दिया. उसके करियर की तलाश में सागर से बहुत दूर मुंबई तक आ गए. अपने लिए उन्होंने कुछ नहीं बचाया, कुछ नहीं कमाया. समय बदला उनके भाई सक्षम और संपन्न हुए. कई वर्षों बाद उनको कुछ आर्थिक मदद की जरूरत पड़ी, तो भाइयों ने फोन उठाने ही बंद कर दिए. उनकी पत्नी से नहीं रहा गया और उन्होंने अपनी पीड़ा दर्ज कराई.
बदले में निरंजन से कहा गया, 'जो उन्होंने किया बड़े होने के नाते उनका दायित्व था. इसके बदले में मदद कर पाना संभव नहीं! अपने दायित्व को किसी मदद से जोड़कर देखना सही नहीं.'
डियर जिंदगी: 'कम' नंबर वाले बच्चे की तरफ से!
निरंजन लिखते हैं कि वह लगभग एक वर्ष से 'डियर जिंदगी' से जुड़े हुए हैं. इसलिए शायद वह भाइयों के रूखे व्यवहार को थोड़ी असुविधा के साथ ही सही लेकिन सहन कर पाए. वह लिखते हैं, 'हमें एक दूसरे को असहमतियों के बीच बर्दाश्त करने की क्षमता और कला सीखने की जरूरत है. 'डियर ज़िंदगी' अपना काम बहुत कोमलता संवेदनशीलता के साथ कर रही है.'
डियर जिंदगी: चलिए, माफ किया जाए!
शुक्रिया निरंजन जी!
हमारे बीच बहुत सी मुश्किलें हैं. दुर्गम रास्ते हैं. रेगिस्तान और उनके बवंडर हैं, लेकिन इन सबके बीच प्रेम और स्नेह के कुछ दरिया भी हैं. हमें उनके साथ चलना है और अपने मन को हर हाल में रेगिस्तान होने से बचाना है. निरंजन की कहानी इस मायने में बहुत प्रेरणादायी है. अगर आपके पास भी ऐसी कहानियां है तो हमसे साझा करिए. कहानियों में बहुत शक्ति, प्रेरणा होती है. ये दूसरे के जीवन को बिना अधिक प्रयास के सरलता से शक्ति देती हैं.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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