अपने बच्चों के ही मन की बात को समझ पाना. उनके सपनों को पढ़ सकना, अरमां की गहराई तक जा पाना जो आप पर निर्भर हैं, मुश्किल काम नहीं, बस अपनी ख्वाहिश उन पर थोपने से मुक्त हो जाइए.
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जीवन में हम जो कुछ बनते, हासिल करते हैं उसमें हमारी अपनी योग्यता और अनुशासन, सीखने की लगन के साथ ही ‘कुछ’ ऐसा भी है, जिसे पकड़ पाना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन समझना मुश्किल नहीं. यह ‘कुछ’ कभी-कभी इतना बड़ा हो जाता है कि वह सब कुछ हो जाता है. इस ‘कुछ’ को मैं उदारता कहता हूं. दूसरों को छोड़िए, हम जीवन में अपनों के प्रति ही उदार नहीं हो पाते क्योंकि हमारे अपने आग्रह, पूर्वाग्रह के प्रति इतने कठोर होते हैं कि अपनों के प्रति कोमलता को ही बिसार देते हैं.
इसे समझना मुश्किल नहीं लेकिन अब भी देश में यह कठोरता बहुत हद तक वैसी ही बनी हुई है. बच्चों को जीवन में क्या करना/पढ़ना/सीखना/बनाना है कि इसका निर्णय कौन करेगा! यह जटिल प्रश्न बना हुआ है. सामूहिक रूप से अभिभावक इस बात को स्वीकार नहीं करते, वह यही कहते हैं कि वह बच्चे की इच्छा के साथ जाएंगे. लेकिन बिना कहे भी वह अपने अवचेतन में दबी कामना के अनुसार ही बच्चों को संचालित करते हैं.
डियर जिंदगी : दुख रास्ता है, रुकने की जगह नहीं…
‘डियर ज़िंदगी’ को रांची से लिखे एक ई-मेल में पंकज श्रीवास्तव ने कहा कि वह डॉक्टर बनना चाहते थे, क्योंकि उनके मन में अपने गांव में इलाज की बुनियादी सेवा न होने की पीड़ा थी. पंकज के पिता आईएएस अफसर हैं. दादा जमींदार थे. पंकज बताते हैं कि आर्थिक संसाधनों की कोई कमी नहीं थी लेकिन पिता उनके प्रति उदार नहीं थे, वह अपने निर्णय के अलावा किसी के प्रति उदार नहीं हैं. क्योंकि वह मानते हैं कि आईएएस ने उनको वह नजर और नजरिया दिया है, जिससे वह सबके लिए सर्वोत्त्म निर्णय कर सकते हैं!
पंकज का मानना है कि पिता के हठ के कारण वह उस काम को नहीं कर पाए जिसे वह करना चाहते थे. पिता के आग्रह जिसे आप कठोरता भी पढ़ सकते हैं. जिसके कारण पंकज ने आईएएस की तैयारी शुरू की लेकिन जब उसमें उनकी सहज बुद्धि साथ नहीं दे रही थी तो वह कहां तक जाते. दो बार साक्षात्कार तक पहुंचने के बाद भी अंतत: चयन नहीं हुआ. इस समय पंकज प्रतिष्ठित एनजीओ में काम करते हैं, जो गांव तक स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुंचाने के काम में जुटा है. पंकज को इस बात की गहरी पीड़ा है कि काश! पिता के निर्णय से पहले ही खुद को ‘अलग’ कर पाते. इससे उनकी वह ऊर्जा, समय बच जाता जो उस गली (आईएएस) में भटकने में बेकार गया, जिस गली में जाने का उनका अरमां ही नहीं था.
डियर जिंदगी : मेरा होना सबका होना है!
पंकज जैसी कहानियों के बोझ से हमारा समाज दबा हुआ है. अपने ही बच्चों के ही मन की बात को समझ पाना. उनके सपनों को पढ़ सकना, अरमां की गहराई तक जा पाना जो आप पर निर्भर हैं, कोई बहुत मुश्किल काम नहीं, बस अपनी ख्वाहिश उन पर थोपने से मुक्त हो जाइए.
मेरा सुझाव है कि वे निर्णय जो बच्चों के सपनों से सीधे जुड़े हों, बच्चों को खुद ही लेने की इजाजत अभिभावक को देनी चाहिए, क्योंकि यह अंतत: उनके ही हित में हैं. पहला, बच्चे के मन में इससे कोई कुंठा बाकी नहीं रहती कि काश! यह किया होता. दूसरी ओर अभिभावक के प्रति बच्चे का मन हमेशा ‘साफ’ रहता है. वह ताउम्र इसे याद रखेगा कि माता-पिता ने वह करने में उसका साथ, हौसला दिया, जो वह करना चाहता था. यह भी हो सकता है कि वह अपने चुने रास्ते पर सफल न हो पाए, लेकिन उसके मन में आपके प्रति आदर स्थायी रहेगा.
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दूसरी ओर बच्चों को यह याद रखना होगा कि अगर सपना उनका है. उसमें केवल ग्लैमर की नहीं अंतर्मन की आवाज भी शामिल है तो अपने सपने के लिए उन्हें हर हाल में ‘खड़े’ रहना सीखना होगा. हालांकि ऐसा कर पाना कई बार आसान नहीं होता क्योंकि या तो आप माता-पिता के प्रभाव में होते हैं या उन पर इतने निर्भर होते हैं कि अपनी ‘बात’ संकोच, भय, उलझन के कारण नहीं कह पाते.
लेकिन अपने भीतर की ऊष्मा, साहस और हौसले की आवाज के लिए ऐसा करना होगा. जिससे आप हमेशा उस पीड़ा से बचे रहें जो पंकज के मन में गहरी बैठी है. यह पीड़ा हमारे मन, दिमाग और दिल को संकुचित, भयभीत और कुंठित करने का काम करती है, और यह अवस्था किसी के लिए सार्थक नहीं है.
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