डियर जिंदगी : बंद दरवाजा…
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डियर जिंदगी : बंद दरवाजा…

अगर आप चाहते हैं कि जब आप परेशानी में हों तो लोग तुरंत आपकी मदद को आगें आएं, तो सबसे पहले आपको खुद ऐसा करने का अभ्‍यास करना होगा, आदत डालनी होगी.

डियर जिंदगी : बंद दरवाजा…

आपके यहां तो बहुत मेहमान आते हैं! पड़ोसी ने आश्‍चर्य के साथ थोड़ी चिंता मिलाते हुए पूछा. अरे! यह सब मेहमान नहीं, हमारे परिवार के ही लोग हैं. चाचा, दादा, बुआ वगैरह हैं. फिर भी, इस तरह हर दो-चार महीने में कोई न कोई आता रहता है. इससे आपको, बच्‍चों को परेशानी नहीं होती? बच्‍चों को छोटे से घर में ‘एडजस्‍ट’ करने में दिक्‍कत नहीं होती? न‍हीं, उन्‍होंने गहरे संतोष, लेकिन मजबूती से कहा.

यहां जो संवाद आपके सामने हैं, असल में हमारे दो मित्र परिवारों के हैं. एक के यहां बरस में मुश्किल से दस लोग आते हैं, तो दूसरे के यहां एक साल में कम से कम 25 से 30 लोग आते हैं. उनके दरवाजे उन सबके लिए खुले हैं, जिनकी शाखाओं से वह जीवन की ऊंची डाली पर पहुंचे हैं, उन शाखाओं से दूर रहने की आदत उन्‍होंने कभी नहीं पनपने दी. असल में यह संयुक्‍त परिवार का बेमिसाल उदाहरण है. जहां भौतिक दूरियों से अधिक परेशानी मन की दूरी पैदा कर रही है. पहले के मुकाबले साधन और सुविधाएं बढ़ रही हैं.

हम जीवन के दायरे को हर दिन छोटा करते जा रहे हैं. परिवार का अर्थ, पति-पत्‍नी और बच्‍चों के साथ पूरा हो जाता है. इससे बाहर के सभी लोग धीरे-धीरे रिश्‍तेदार की श्रेणी में पहुंच जाते हैं. बच्‍चों को इस तरह ‘एकल’ \‘अकेले’ वातावरण में रहने की आदत होती जा रही है कि वह अपने सगे चाचा, ताऊ के साथ भी एकदम सधे अंदाज में ‘अंकल’ वाली शैली में पेश आ रहे हैं. उनके लिए फ्लैट की चाहरदीवारी के बाहर रहने वाला हर व्‍यक्‍ति दूसरा ‘आउटसाइडर’ होता जा रहा है. क्‍या मेरे बच्‍चों का भी मेरे भाई के साथ वैसा ही रिश्‍ता रहने वाला है जैसा मेरा मेरे चाचाजी के साथ है!

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इसमें भौतिक कारण देखने में बड़ा जरूर लगता है, लेकिन असल में वह उतना बड़ा नहीं है. जितनी मानसिक दूरी! एक-दूसरे से मिलने के अवसर जितना ही जरूरी बच्‍चों के साथ रिश्‍तों में वह पाठ भी है, जो माता-पिता बच्‍चों को जाने-अनजाने सिखा रहे हैं.

मशहूर अमेरिकी कहानीकार एदुआर्दो गालेआनो की एक लघुकथा है- बंद दरवाजे. इससे गुजरते हैं... 

‘साल 2004 के अगस्‍त में पाराग्वे के आसुनसियोन में एक शॉपिंग सेंटर में आग लग गई. तीन सौ छियानवे लोग मारे गए. दरवाजे बंद कर दिए गए थे, ताकि बिना पैसे चुकाए कोई भाग न सके.’

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यह तो बात हुई एक कर्मिशियल सेंटर की सोच और उसकी अमानवीय ट्रेंनिंग पाए लोगों की जिनके दिल और दिमाग में केवल और केवल धन की धमक है. जो जीवन की कीमत पर भी धन के नुकसान की बात नहीं सोच सकते.

लेकिन हमारी सोच-विचार और समझ के केंद्र भी इतने ही छोटे होते जा रहे हैं! हम हर चीज को केवल और केवल पैसे के नजरिए से देख और समझ रहे हैं. हमारे भीतर आर्थिक, सामाजिक बेहतरी की चाहत होने में कोई समस्‍या नहीं है, समस्‍या केवल इतनी है कि हम चीजों को संपूर्णता में नहीं देख रहे हैं.

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जब तक हम अपने दिल-दिमाग के दरवाजे दूसरों के लिए नहीं खोलेंगे, बच्‍चों को सबको साथ लेकर चलने का नजरिया नहीं दे पाएंगे. दूसरों के लिए जगह की सोच न होने के कारण ही समाज में हिंसा, क्रूरता और असमानता इतनी तेजी से बढ़ती जा रही है.

हमें दूसरों में कमियां खोजने से परे यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारा नज‍रिया समावेशी हो. हमारी सोच के दायरे बड़े हों, उनमें दूसरों के लिए उतनी जगह तो हो कि वह आसानी से सांस ले सकें. तभी हम वैसे दुनिया का हिस्‍सा हो पाएंगे, जैसी अपने लिए चाहते हैं.

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अगर आप चाहते हैं कि जब आप परेशानी में हों, तो लोग तुरंत आपकी मदद को आगें आएं, तो सबसे पहले आपको ऐसा करने का अभ्‍यास, आदत डालनी होगी. तभी हम उस सपने की ओर बढ़ सकेंगे, जो हमारी आंखों में बस रहा है, लेकिन दिमाग तक नहीं पहुंच रहा. 

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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