निर्भया केस- 5 साल बाद : क्या हम बलात्कार रोकने का तरीका ढूंढने के प्रति सीरियस हैं!
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निर्भया केस- 5 साल बाद : क्या हम बलात्कार रोकने का तरीका ढूंढने के प्रति सीरियस हैं!

निर्भया की घटना के बाद दिल्ली की सड़कों से उठे गुबार, गुस्सा, जोश, संवेदना से ऐसा लग रहा था मानो अब देश में महिला अपराधों की खैर नहीं. केवल सरकार और शासन-प्रशासन ही नहीं, जब जनमानस भी सामाजिक मसलों के प्रति ऐसा रुख अख्तियार करता है तो बड़ी उम्मीद तो बंधती ही है, लेकिन...

निर्भया केस- 5 साल बाद : क्या हम बलात्कार रोकने का तरीका ढूंढने के प्रति सीरियस हैं!

निर्भया के दिल दहला देने वाले कांड के पांच साल गुजर जाने के बाद भी हमारा समाज यह समझ नहीं पाया है कि आखिर बलात्कार रोकने का क्या तरीका होना चाहिए. क्या केवल सरकारी चाबुक से यह कुकृत्य रुक जाने वाला है या हमारा समाज ही ए​क किस्म के भेड़ियाधसान का शिकार है जहां सभी को बिना सोचे-समझे चलते-चले जाने की बीमारी लग गई है. आंकड़े तो चीख-चीख कर बता ही रहे हैं कि हमने न तो निर्भया वाली घटना से कोई सबक लिया न ही कोई रीति-नीति बनाई, न ही हम संवेदना के स्तर पर महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के लिए कोई पैनापन ला पाए और न ही ऐसे अपराधियों को हमने सबक सिखाया, न कोई नजीर पेश की जिससे वास्तव में महिला अपराधों का ग्राफ कम हो सके.

अलबत्ता मध्यप्रदेश सरीखे राज्य में जहां सबसे ज्यादा अपराध महिलाओं के प्रति दर्ज किए जा रहे हैं, वहां मुख्यमंत्री जी ने फांसी के प्रावधान को विधानसभा से पास करवा लिया. इस पर तमाम तर्क​-वितर्क हुए और जैसा कि विपक्ष के कई नेताओं ने तर्क दिया कि इससे तो रेप के बाद हत्या के मामले भी बढ़ जाएंगे और इसके तीसरे दिन ही सागर जिले से एक ऐसा मामला आ भी गया जहां सामूहिक बलात्कार के बाद महिला को जला दिया गया, उसने इलाज कराते-कराते दम ही तोड़ दिया. रेप के साथ हत्या का अपराध भी पुलिस डायरी में बढ़ गया.

निर्भया की घटना के बाद दिल्ली की सड़कों से उठे गुबार, गुस्सा, जोश, संवेदना से ऐसा लग रहा था मानो अब देश में महिला अपराधों की खैर नहीं. केवल सरकार और शासन-प्रशासन ही नहीं जब जनमानस सामाजिक मसलों के प्रति यह रुख अख्तियार करता है तो बड़ी उम्मीद बंधती है. उम्मीद बंधती है कि यह जो कुछ भी समाज में हो रहा है और उसे करने वाले बहुत थोड़े से लोग हैं, यह जरूर ही सबक लेंगे, समाज उन्हें सबक सिखाकर ही दम लेगा. यह भी सही है कि बात दिल्ली की होती है तो यह तेज गति से देश के कोने-कोने में पहुंचती है, यह भी उतना ही सच है कि मीडिया मुद्दे को सेट कर देता है, वरना तो निर्भया जैसे अनेक मामले हुए हैं, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया.

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निर्भया के बाद जो वास्तव में होना चाहिए था वह नहीं हुआ. इसके अगले ही सालों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के जो मामले दर्ज थे वह फिर बढ़ गए. तो सवाल यही है कि क्या बलात्कार रोकने का कोई सही और सटीक उपाय हम खोज पा रहे हैं या नहीं. क्या वास्तव में यह फांसी सरीखे कानून से रुकने वाला है या उसके बाद हत्या के मामले भी बढ़ जाने वाले हैं. क्या हमारे देश में जितने कानून हैं, उनसे वास्तव में देश में होने वाले अपराध रुक रहे हैं. क्या यह वाकई में एक निर्णय है अथवा एक राजनीतिक निर्णय है, इसके पीछे अपनी विफलताओं को ओढ़ने का एक तरीका है, ताकि अगले चुनावों में यह बता सकें कि हमने महिला अपराध रोकने के लिए यह निर्णय लिया. वास्तव में यह एक गंभीर निर्णय है, क्योंकि यह एक राज्य का मसला नहीं बल्कि उसकी नजीर पूरे देश में ली जाने वाली है.

चर्चा में एक दूसरा निर्णय भी है जिसमें बलात्कार के दंश से जूझ रही महिला को बंदूक का लाइसेंस देने की बात की जा रही है. इस निर्णय की भी तमाम तरह से आलोचना की जा रही है. इस पर ज्यादा लिखे जाने की जरूरत लगती नहीं. पर यह हमारी नीति नियंताओं के सोचने का तरीका जरूर बताता है.

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अपराध वास्तव में बताते हैं कि समाज में विकास के बरक्स खोखलापन किस तरह से बढ़ रहा है. क्या वास्तव में यह महसूस किया जा रहा है कि हर जगह इंटरनेट पहुंचा देने के साथ उसके सुरक्षित और सम्मानजनक इस्तेमाल ​की शिक्षा भी दी जा रही है अथवा नहीं. स्मार्टफोन के जरिए सस्ता डेटा पैक और तमाम एप जो ऐब समाज में जबरदस्ती घुसाते चले जा रहे हैं उस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं हैं, उस पर कोई संवाद भी नहीं है और तकनीक तो ऐसी सामग्री को नियंत्रित करने से हाथ तक खड़े कर चुकी है जो यौन कुंठाओं का एक बड़ा और खुला माध्यम बन गया है.

समाज से मूल्यों का सीधा संवाद गायब है और सारी शिक्षा मोबाइल स्क्रीन के माध्यम से टेक्स्ट और पिक्चर्स में आती है, वह एक पल को सामने आती है और जब तक कि दिमाग तक उसका असर पहुंचता हो, वह गायब ही हो जाती है. सोचिए कि समाज के पास सोचने-समझने और कुछ करने का वक्त किसके पास है. ऐसे समय में निर्भया के न होने की उम्मीद तो छोड़ ही दीजिए. लगता तो ऐसा है कि हमारे पास बलात्कार रोक पाने का उपाय ढूंढने का समय ही नहीं है, इसीलिए कोई सही उपाय अब तक नहीं खोज पाए हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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