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सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम समाज में प्रचलित एक कुप्रथा ‘तलाके बिद्दत’ यानी तीन बार तलाक बोलकर किसी पति द्वारा पत्नी को दिए गए तलाक को अपरिवर्तनीय मान लेना, को अवैध ठहरा कर एक दूरगामी फैसला दिया है. हालांकि यह फैसला सर्वसम्मति से नहीं आया है और प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति खेहर एवं न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर ने इससे सहमति नहीं जतायी है और उनके अनुसार तीन तलाक मुस्लिम पर्सनल लॉ का हिस्सा है. अतएव उसे मूल अधिकारों का स्तर प्राप्त है. वहीं, न्यायमूर्ति नरिमन एवं यू.यू. ललित का कहना है कि ‘तीन तलाक एक मनमाना कृत्य है, और सन् 1937 का जो कानून इसे मान्यता प्रदान करता है वह असंवैधानिक है और इसे रद्द कर दिया है.’
जबकि न्यायमूर्ति जोसेफ का कहना है कि, ‘तीन तलाक कुरान के सिद्धांतों के खिलाफ है, शरियत कानून का उल्लंघन करता है और यह इस्लाम का अंतरंग हिस्सा नहीं है. उनका निर्णय है कि सन् 1937 के कानून का उद्देष्य था कि शरियत एकमात्र कानून है जो मुसलमानों को संचालित करता है और चूंकि यह पद्धति शरियत के हिसाब से भी बुरी है, अतएव यह एक खराब कानून है. वह न्यायमूर्ति नरिमन की इस दलील से भी सहमत नहीं थे कि शरियत कानून को संविधान के अंतर्गत लागू किया जाए.
मुसलमानों के बीच तीन तरह के तलाक प्रचलन में है. ये हैं तलाक-ए-बिद्दत, तलाक-ए-अहसन एवं तलाक-ए-हसन. इसमें से तलाक-ए-बिद्दत अब गैरकानूनी घोषित हो गया है. इतना ही नहीं सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि
भारतीय संसद मुस्लिम पुरुषों द्वारा तलाक लिए जाने के लिए 6 महीने में कानून बनाए और तब तक तलाक लेने पर प्रतिबंध लगा रहेगा. यदि इस अवधि में कानून नहीं बन पाया तो यही व्यवस्था (प्रतिबंध) बनी रहेगी.
जाहिर है, इस निर्णय की सभी ओर सराहना हो रही है और होनी भी चाहिए. एक पापी प्रथा आस्था कैसे हो सकती है और यह निर्णय एकस्तर पर कहीं न कहीं पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति को व लैंगिक भेदभाव को चोट पहुंचाता एवं समानता को स्थापित करता नजर आता है. परंतु इसी के साथ यह भी साफ हो जाता है कि इस निर्णय से मुस्लिम समुदाय में महिलाओं की स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन आने की संभावना नहीं के बराबर है. शायरा बानो एवं चार अन्य महिलाओं ने इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी. गौरतलब है, इस्लाम में दो अन्य तलाक प्रणालियां, पहली तलाक-ए-अहसन, जिसमें तीन मासिक चक्र की अवधि जिसे इद्दत कहा जाता है, में तलाक वापस लिया जा सकता है. अन्यथा यह स्थायी हो जाता है. यदि दोनों चाहें तो इसके बाद भी दोबारा शादी कर सकते है. अतएव इसे अहसन यानी सर्वश्रेष्ण कहा जाता है. तलाक-ए-हसन में पति अपनी पत्नी को जबकि उसका मासिक धर्म न चल रहा हो तलाक कहता है. यहां उसे अधिकार होता है कि वह समयावधि से पहले तलाक वापस ले ले. परंतु तलाकशुदा तभी दोबारा शादी कर सकते हैं जबकि बीवी ने हलाला यानी किसी दूसरे से शादी कर ली हो.
इस निर्णय ने बाद के दोनो तलाकों पर किसी भी तरह की कोई टिप्पणी नहीं की है. यही वह स्थिति है, जिस वजह से मुस्लिम महिलाओं की व्यक्तिगत व सामाजिक संकट व दुर्दशा समाप्त नहीं होती बल्कि सिर्फ तीन महीनों के लिए टल भर जाती है. देश की 8 प्रतिशत आबादी यानी करीब 10 करोड़ महिलाओं की स्थिति कमोवेश अपरिवर्तनीय सी बनी रहेगी. इतना ही नहीं निर्णय से यह भी ध्वनित होता है कि नया कानून भी मुस्लिम पुरुषों के लिए ही बनेगा और संभवतः मुस्लिम पर्सनल लॉ का हिस्सा रहेगा. यानी दूसरे धर्मों की महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाएं अभी भी दोयम दर्जें की ही रहेंगी. दूसरे शब्दो में कहें तो तीन तलाक की वैधता पर कोई आंच नहीं आई है. वैसे तो सरकार ने दावा किया था कि यदि न्यायालय तलाक-ए-अहसन, तलाक-ए-हसन व तलाक-ए-बिद्दत तीनों को अवैध घोषित कर देता है तो वह मुस्लिम पुरुषों के लिए नया कानून लाएगी. परंतु अब कानून बनाना टेड़ी खीर हो गया है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन दोनों की वैधता पर कोई टिप्पणी नहीं की है. क्या ऐसे में दो तरह की व्यवस्थाएं जारी रहेंगी? साथ ही इसमें लैंगिक तटस्थता या जेण्डर न्यूट्रिलिटी का प्रश्न भी सामने आएगा कि 1400 वर्षों तक एक ‘पापी प्रथा’को ढोने के बावजूद संवैधानिक व्यवस्था में उनकी (महिलाओं) सीधी भागीदारी संभव नहीं हो पाएगी? यदि समान नागरिक संहिता की बात को अभी बीच में न भी लाएं तो मुस्लिम समाज में यह लैंगिक भेदभाव क्या इसी तरह से कायम रहेगा?
यह तो भेड़ की पूंछ पकड़ कर नदी पार करने जैसा ही हो गया. इस निर्णय को ऐतिहासिक व असाधारण बताने तथा मुस्लिम महिलाओं की असाधारण विजय बताने वाले सभी लोगों को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या सर्वोच्च न्यायालय का वर्तमान निर्णय एक मायने में अधूरा निर्णय नहीं हैं? भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 अंतःकरण की, और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है. जबकि व्यावहारिक स्तर पर हम देखते हैं कि महिलाओं को लेकर लगातार नए तरह के नियम बनाए जा रहे हैं और उनकी स्वतंत्रता को बाधित किया जा रहा है. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय को सबसे प्रथम उल्लखित किया गया है. परंतु वर्तमान निर्णय मुस्लिम महिलाओं को पूर्ण सामाजिक न्याय नहीं दिलवा पाएगा. इसके बाद विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा व अवसर की समता की बात आती है. यहां भी इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में देखें तो उन्हें बहुत सीमित राहत ही मिल पा रही है. भारतीय संविधान की प्रस्तावना, ‘व्यक्ति की गरिमा’ पर विशेष जोर देती है. परंतु मुस्लिम महिलाएं सिर्फ तात्कालिक बेइज्जती से ही बच पा रहीं हैं. यदि किसी मुस्लिम पुरुष को तलाक देना ही है तो उसके पास अभी भी पूरे विकल्प हैं, सिर्फ समय ही थोड़ा ज्यादा लग रहा है.
आवश्यकता इस बात की है एक बार में तीन तलाक ही नहीं, तीन बार में तीन तलाक की प्रथा को भी कानून के दायरे में लाया जाए, तभी मुस्लिम महिलाओं की समता और समानता की लड़ाई अपने इच्छित मुकाम पर पहुंच पाएगी. आज का निर्णय उस दिशा में उठा पहला ठोस व निर्णायक कदम है और इसे सीढ़ी बनाकर मंजिल तक पहुंचा जा सकता है.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत विचार हैं)