यूक्रेन: यूरोपीय संघ और रूस के बीच एक देश, यहां के राष्ट्रपति चुनाव पर दुनिया की है नजर
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यूक्रेन: यूरोपीय संघ और रूस के बीच एक देश, यहां के राष्ट्रपति चुनाव पर दुनिया की है नजर

यूक्रेन जहां रूस के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया है, वहीं पश्चिमी देश उसे यूरोपीय संघ या नाटो में शामिल करने को बेताब हैं.

यूक्रेन में पेट्रो पोरोशेंको के लिए राष्ट्रपति पद वापस हासिल करना आसान नहीं होगा. (फोटो IANS)

नई दिल्ली: यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुए देशों में से सबसे प्रमुख देश है. 600,000 वर्ग किलोमीटर में फैला यूक्रेन यूरोप का दूसरा और पूर्वी यूरोप का सबसे बड़ा देश है. यूरोपीय संघ और रूस के बीच होने से यह कभी पश्चिम तो कभी पूर्व में रूस की ओर ज्यादा झुकता दिखाई देता है. रूस इस देश में अपना प्रभाव बढ़ाते हुए यहां वर्चस्व बढ़ाना चाहता है तो वहीं देश में इस पर भी बहस चल रही है कि क्या यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनना चाहिए या नहीं. 

क्यों चर्चा में है आज यूक्रेन

यूर्केन में 31 मार्च को राष्ट्रपति चुनाव होने हैं. इस चुनाव पर पड़ोसी रूस और यूरोपीय संघ के अलावा दुनिया की निगाहें भी हैं क्योंकि इससे यूक्रेन और यूरोपीय संघ दोनों का भविष्य प्रभावित होगा. इस चुनाव में भ्रष्टाचार, रूस समर्थित अलगाववादियों से युद्ध, आदि मुद्दे प्रमुखता से छाए हुए हैं. इसके साथ ही लोकतंत्र की मजबूती, आर्थिक स्थिरता, रूस से यूक्रेन के संबंध या यूक्रेन में रूस का दखल रोकने की जरूरत, नाटो संधि से जुड़ने जैसे कई सवाल भी देश की राजनीति को इस चुनाव में प्रभावित कर रहे हैं. 

कैसे चुने जाते हैं युक्रेन में राष्ट्रपति
यूक्रेन के राष्ट्रपति को लोकप्रिय वोट से वहां की जनता पांच साल के लिए राष्ट्रप्रमुख के तौर पर चुनती है. 1991 में सोवियत संघ से अलग होने के बाद कुछ मामूली परिवर्तन से रूस के संविधान 5 साल के लिए लागू रहा, जिसके बाद 1996 में यूक्रेन ने नया संविधान अपनाया. यहां 450 सदस्यीय एक सदनीय संसद है जिसे वेर्खोवना राडा कहा जाता है. संसद से ही कार्यपालिका का निर्माण होता है जिससे मंत्रिपरिषद बनती है और जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता है. इस देश में राष्ट्रपति की शक्तियां ज्यादा हैं. वह विदेश मंत्री और रक्षामंत्री को नामित कर सकता है जिसे संसद को स्वीकृति देनी होती है. राष्ट्रपति के पास किसी भी विधेयक को वीटो करने की शक्ति भी है. इसके अलावा संवैधानिक न्यायालय की भी यहां अहम भूमिका है. शुरुआत में (1996) राष्ट्रपति की शक्तियां ज्यादा थीं, लेकिन बाद में (2006 से) ये कम कर दी गई और प्रधानमंत्री की शक्तियों में इजाफा हो गया. 

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सत्ता परिवर्तन के लिए हुए बड़े आंदोलन
चुनाव में किसी एक पार्टी को बहुमत न मिलने से यहां सत्ता संघर्ष आंदोलन में बदले. 2004 में विपक्ष के नेता विक्टर युशचेंको ने रूसी समर्थक विक्टर यानुकोविच की जीत को पक्षपाती नतीजा बताया और देश में विरोध प्रदर्शन शुरू किए. प्रदर्शनकारियों ने सरकार बदलने के लिए नारंगी रंगे के कपड़े, बैनरों से सराबोर आंदोलन किया. इसी वजह से इस ऑरेंज क्रांति कहा गया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनावों के अवैध करार दिया. इसके बाद दिसंबर 2005 दिसंबर में दोबारा चुनाव हुए और विक्टर युशचेंको जीत हासिल करने के बाद राष्ट्रपति बन गए. हालांकि यानुकोविच 2010 में फिर से चुनाव जीतकर राष्ट्रपति बन गए. इसी तरह 2014 में फिर से यानुकोविच के खिलाफ प्रदर्शन हुआ और उन्हें देश तक छोड़ना पड़ा जिसके बाद क्रीमिया पर रूस ने कब्जा कर लिया. 

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क्या है क्रीमिया का मामला 
साल 2014 में देश में रूस समर्थक राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच का विरोध चरम पर था. पूरे देश में उनके खिलाफ प्रदर्शन हो रहा था. तब रूस ने क्रीमियाई प्रायद्वीप (क्रीमिया) पर कब्जा कर लिया. इसका यूक्रेन सहित दुनिया के कई देशों ने विरोध किया. रूस ने क्रीमिया में जनमत संग्रह भी कराया जिसमें 97 प्रतिशत लोगों ने रूस के साथ रहने के पक्ष में मतदान किया. संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली ने इस जनमत संग्रह को गैरकानूनी करार दिया. अंततः यानुकोविच देश छोड़ कर भाग गए और नए चुनाव के बाद पीटर पोरोशेंको राष्ट्रपति चुने गए. लेकिन यह भी सच है कि क्रीमिया में सबसे ज़्यादा संख्या रूसियों की है. इसके अलावा यहां यूक्रेनी, तातार, आर्मेनियाई, पॉलिश और मोल्दोवाई मूल के लोग भी हैं, लेकिन एक समय में क्रीमिया पर कभी क्रीमियाई तातार बहुसंख्या में थे जो स्टालिन के शासन में इस इलाके को छोड़ कर चले गए थे. सोवियत संघ के विघटन के बाद यहां काफी तादात में तातार मूल के लोगों की वापसी भी हुई थी. 

पूर्वी यूरोप में अलगाववादियों के साथ संघर्ष
क्रीमिया पर कब्जे के साथ ही यूक्रेन के पूर्व में स्थित रूस समर्थित अलगाववादियों के साथ अभी तक यूक्रेन सरकार का युद्ध चल रहा है. वर्तमान राष्ट्रपति पीटर पोरोशेंको पर यह भी गंभीर आरोप है कि वे इस यूद्ध को निर्णायक रूप से खत्म करने में नाकाम रहे हैं. यूक्रेन के पूर्वी इलाका उद्योग से समृद्ध इलाका माना जाता है. 2014 से ही इसमें दोनेत्स्क और लुआन्सक इलाकों ने खास तौर पर अलगाववादियों ने सरकारी इमारतों पर कब्जा करते विद्रोह किया था. इसके बाद से पोरोशेंको सरकार के अभियान में कम से कम 9,000 लोगों मारे गए थे. तब से अब तक अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की मदद से कुछ समझौतों के साथ युद्ध विराम भी हुए, लेकिन यह संघर्ष निर्णायक मुकाम पर नहीं पहुंच सका.

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पूर्वी यूरोप के सबसे बड़े देशों में से एक यूक्रेन पूर्व और उत्तरपूर्व में रूस, उत्तर में बेलारूस, पश्चिम में पोलैंड और स्लोवाक, दक्षिण पश्चिम में हंगरी, रोमानिया, और मोल्दोवा के बीच में स्थित है. दक्षिण पश्चिम में पोलैंड से लेकर रोमानिया तक कार्पाथियन पर्वतमाला के हिस्से देश के सबसे ऊंचे स्थान हैं. उसके बाद पूर्व की ओर ढलती पोलैंड उच्चभूमी है. इसके उत्तर में पोलेशियन निम्न भूमि है. देश के मध्य भाग में उत्तर से दक्षिण की ओर बहती डेनेपर नदी इस क्षेत्र को डेनेपर उच्च भूमि और डेनेपर निम्मभूमि में बांटती है. रूस से लगी उत्तर पूर्वी सीमा मध्य रूसी उच्चभूमि में स्थित है. दक्षिण में डेनेपर नदी के नीचे के इलाके में काला सागर निम्नभूमि, डेनेट्स अजोव प्रायद्वीप है. काला सागर से लगभग चारों ओर घिरे क्रीमियन प्रायद्वीप (क्रीमिया) सागर के उत्तर में स्थित है जो अब रूस के कब्जे में है. दक्षिणी क्रीमियाई प्रायद्वीप को छोड़ कर यूक्रेन में अमूमन समशीतोष्ण जलवायु पाई जाती है. क्रीमिया में भूमध्यसागरीय जलवायु का प्रभाव प्रमुखता से देखा जाता है. यहां के निचले इलाकों में स्टेपी घास के मैदान मिलते हैं.  

यूक्रेनी और रूसी भाषियों में बंटा है यूक्रेन
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद यूक्रेन एक नए देश के रूप में अस्तित्व में आया. चार करोड़ 54 लाख की आबादी वाले यूक्रेन की राजधानी कीव सोवियत संघ के प्रमुख शहरों में से एक रहा है. यहां की राजकीय भाषा यूक्रेनियन के अलावा रूसी भाषा बोलने वाले भी पूर्वी इलाकों में ज्यादा पाए जाते हैं. यूक्रेन में ज्यादातर जमीन उपजाऊ कृषि योग्य भूमि है, वहीं पूर्व में औद्योगिक क्षेत्र ज्यादा हैं. यहां आधे से ज्याद लोग (67%) यूक्रेनी भाषा बोलते हैं जिनमें ज्यादातर पश्चिमी इलाके में रहते हैं. करीब 24% रूसी बोलने वाले लोगों में अधिकतर पूर्वी इलाकों में बहुतायत में पाए जाते हैं और वे वहां बहुसंख्यक है. इसके अलावा यहां रोमानियाई, पोलिश, और हंगेरियन भाषा बोलने वाले लोग भी मिलते हैं. 

आर्थिक स्थिति 
यूक्रेन हमेशा से ही प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध देश रहा. सोवियत विघटन के बाद यहां की अर्थव्यवस्था अच्छी नहीं रही, लेकिन 2000 के बाद इसमें सुधार होना शुरू हुआ और दुनिया भर में (2008 में) फैली मंदी से भी खुद को बचाने में कामयाब रही. इसके बाद 2011 से इसमें फिर गिरावट देखने को मिली और 2016 से इसमें सुधार देखने को मिल रहा है. यहां प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है जिसमें लोह अयस्क, कोयला, प्राकृतिक गैस, विभिन्न धातुएं, प्रमुखता से शामिल हैं. स्टेपी घास के मैदान प्रचुरता में होने से यहां अनाज, डेयरी उत्पाद, मांस, सब्जियां आदि भी बहुतायत में उत्पन्न होती हैं. यहां के उद्योगों में कोयला, बिजली, धातु उद्योग, मशीनरी, यातायात संसाधन, आदि शामिल हैं. राइवन्या यहां की नई मुद्रा है जो नए संविधान के साथ 1996 में अपनाई गई. राजनैतिक स्थिरता इस देश को विकसित देश के स्तर तक पहुंचा सकती है लेकिन यह अभी तक हो नहीं सका है. यहां की अर्थव्यवस्था में बहुत गहरे उतार चढ़ाव आते रहे हैं. 

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संक्षिप्त इतिहास 
इस इलाके में खानाबदोश जनजातियां जैसे किमीरियन, सिंथियान और गॉथ प्रजातियों के लोग शुरू से रहते रहे थे. इसके बाद यूनानी और रोम साम्राज्य के लोग यहां आकर बसे. दसवीं सदी में कीवी रूस साम्राज्य का यहां प्रभाव रहा जो उस समय यूरोप का सबसे बड़ा साम्राज्य था. इसी दौरान कीवियन रूस साम्राज्य ने ईसाई धर्म अपनाया और 13वीं सदी में मंगोलों के यहां आने तक राज किया. बाद में यूक्रेन पहले पोलैंड और फिर रूस का हिस्सा बना रहा. रूस और सोवियत संघ के शासन के दौरान यहां बहुत से प्रतिबंध लगाए गए. 

स्वतंत्रता की लिए तसरता रहा यूक्रेन
20वीं सदी में यूक्रेन ने पहले तीन साल के लिए (1917 से 1920 तक) स्वतंत्रता हासिल की और उसके बाद दो बार सूखे के हालातों का सामना किया जिसमें करीब 80 लाख लोगों की मौत हुई. द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी और सोवियत संघ के बीच हुए संघर्ष में 70 लाख लोग मारे गए. 1991 में सोवियत संघ से यूक्रेन भौगोलिक रूप से तो आजाद हो गया, लेकिन यहां का कुलीन वर्ग अभी भी यहां के आर्थिक सुधारों और जन अधिकारों के लिए बाधा बना हुआ है. यूक्रेन के चेर्नोबिल परमाणु संयंत्र में 1986 में हुए विस्फोट ने दुनियाभर को हिलाकर रख दिया. सोवियत संघ ने इस हादसे को छुपाने की नाकाम कोशिश की और अंतरराष्ट्रीय सहयोग लेने से मना कर दिया था. 

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