डियर जिंदगी : सुनो, बात करो! बात की फीस मिलेगी...
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डियर जिंदगी : सुनो, बात करो! बात की फीस मिलेगी...

हम जिस समय में हैं, वहां मनुष्य के चेहरे तक का रंग बदला हुआ है. उसके चेहरे पर जीवन की महत्‍वाकांक्षा का रंग इतना गहरा हो चला है कि शक्‍लें पहचानना हर दिन मुश्किल होता जा रहा है. 

डियर जिंदगी : सुनो, बात करो! बात की फीस मिलेगी...

आपने कभी ऐसी नौकरी के बारे में सुना है, जहां बात करने के पैसे मिलते हों. काम करने के पैसे अलग और कुछ देर बात करने के पैसे उस काम से भी ज्‍यादा. हमारे आसपास की दुनिया हमारी कल्‍पना से भी ज्‍यादा तेजी से बदल रही है. बहुत कुछ ऐसा है, जो हमारी आंखों के सामने होकर भी आंखों की पकड़ से बाहर है. मनुष्‍य का सुख देखना तो आसान है, लेकिन उसके दुख तक सहजता से पहुंचना संभव नहीं. उसके दुख प्रदेश तक पहुंचने के लिए उसके मन की दीवारों को पार करना होता है और किसी के मन के द्वार पर दस्‍तक देना तो सहज है, लेकिन वहां से आगे का प्रवेश बेहद मुश्किल है. लगभग वर्जित.

हम जिस समय में हैं, वहां मनुष्य के चेहरे तक का रंग बदला हुआ है. उसके चेहरे पर जीवन की महत्‍वाकांक्षा का रंग इतना गहरा हो चला है कि शक्‍लें पहचानना हर दिन मुश्किल होता जा रहा है. दुख में दुखी होना सहज बात बात है. सुख में सुखी होना भी उतनी ही सहज आदत. लेकिन हम जीवन में संतुलन और सहजता को बहुत पीछे छोड़ आए नजर आते हैं. ऐसा लग रहा है कि जिंदगी में सबसे मुश्किल चीज़ सहजता हो चली है.

गाजियाबाद के इंदिरापुरम में जहां मैं रहता हूं, वहां एक ऐसी घटना सामने आई, जो हमारे एकदम नजदीक में बैठे अकेलेपन को नजरअंदाज करने का दुखद, विचित्र उदाहरण है. यहां एक कॉलोनी में कुछ घरेलू सहायिकओं (Domestic Helpers) ने ऐसे संवाद के किस्‍से सुनाए, जिन पर जितना मुश्किल यकीन करना नहीं है, उससे कहीं अधिक चिंतित करने वाला है.

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यह घरेलू सहायिका एक ऐसी कॉलोनी में काम करती हैं, जहां पर बहुमंजिला इमारतों के साथ पैंट-हाउस बने हैं. पैंट-हाउस में रहने वालों की हैसियत ऐसे व्‍यक्‍तियों के रूप में होती है, जिनके पास सामान्‍य फ्लैट में रहने वालों से कई गुना अधिक इनकम होती है. इनमें रहने वालों के बारे में अक्‍सर हम यही कहते हैं, अरे! इनके पास भला क्‍या कमी होगी. इनको जीवन में क्‍या दुख हो सकता है. इनके पास तो सबकुछ है. लेकिन इन घरों से ऐसे कहानियां सामने आ रही हैं, जो यह बताने में सक्षम हैं कि अगर ऐसे दुख के साथ आपको वहां रहने को कहा जाए तो आप शायद ही तैयार होंगे.

इन पैंट-हाउस में रहने वाली उम्रदराज महिलाएं बात करने के लिए अलग से पैसे दे रही हैं. क्‍योंकि उनके घर में किसी के पास उनके लिए समय नहीं. पति के पास समय नहीं. बच्‍चों को उनका हालचाल लेने की फुर्सत नहीं. हां, किसी चीज़ की कमी नहीं, लेकिन बहुत कुछ ऐसा है, जिसकी कमी हमेशा खलती रहती है.

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इन पैंट-हाउस में काम करने वाली कुछ सहायिकाओं का कहना है कि मैडम चाहती हैं कि हम काम करके जल्‍दी से जल्‍दी दूसरी जगह जाने की जगह थोड़ी देर इत्‍मिनान से उनसे गपशप करें. उनकी बातें सुनें, उनके साथ संवाद का हिस्‍सा बनें. क्‍योंकि कोई इनसे बात करने वाला नहीं है. इसलिए इन लोगों को बात सुनने के पैसे मिल रहे हैं. जिस घर में काम करने के बदले तीन हजार मिलने चाहिए वहां बात करने के लिए, अधिक देर तक रुकने के लिए पांच हजार दिए जा रहे हैं. सुनो, ताकि कहने वाले का मन हल्‍का हो सके. मन का गुबार निकल सके.

एक दिन एक मित्र के साथ मुझे भी एक ऐसे ही विशाल लगभग सात हजार स्क्वेयर फीट में फैले पैंट-हाउस में जाने का मौका मिला. इनकी मालकिन के पति का एक पांव भारत में तो दूसरा संयुक्‍त अरब अमीरात में रहता है. चौबीस बरस का बेटा उनको छोटा लगता है! मजेदार बात यह है कि वह उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहतीं, जबकि बेटा स्‍वतंत्रता चाहता है. इस विशाल घर की देखभाल मुश्किल हो चली है.  इसलिए वह बेचना चाहती हैं. मैं जिनके साथ गया था वह इस घर के संभावित खरीदार हो सकते हैं, लेकिन उसके बाद भी इन्होंने पहले तो हमें घर देखने के लिए प्रवेश तक देने से इंकार कर दिया, क्‍योंकि हम कई लोग थे! उन्होंने सोचा होगा इतने सारे लोग एक साथ! क्‍या कोई ऐसे भी घर देखने जाता है.

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लेकिन उदासी और अकेलेपन की इंतहा देखिए कि जो घर में प्रवेश देने से इंकार कर रहीं थी, वह एक घंटे से भी अधिक देर तक बतियाती रहीं. दुनिया जहां की बातें. अपनी बुलंदी के बारे में. प्रतिष्‍ठा के बारे में अनंत बयान. हमें ही कहना पड़ा, अब चलते हैं. लेकिन प्रतिष्‍ठा के बयानों के बीच वह ऐसा कुछ नहीं कह सकीं, जो उनकी प्रसन्‍नता को बयां करता. जो उनके सुख को अभिव्‍यक्‍त करता. उनके घर में साधन तो दिखे , लेकिन आनंद 'मिसिंग' रहा...

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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